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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण एवं शुभ से व्याख्यात की क में इसका कौटुंबिकसक्त रहना जो बाह्य "शुद्ध स्वरूप में अवस्थिति ही बहिरात्म-भाव से विमुक्त होकर अन्तरात्मभाव-पूर्वक परमात्मभाव की प्राप्ति है।" परमात्म-भाव के रहस्य का उद्घाटन करते हुए डॉ. हुकमचंद भारिल्ल लिखते हैं "आत्मा के वर्तमान पर्याय में मोह, राग, द्वेषादि भाव पाए जाते हैं, तथापि वे आत्मा के स्वभावभाव नहीं हैं, विकार हैं, विकृतियाँ हैं । विकार और विकृतियाँ वस्तु नहीं हुआ करती । यद्यपि वे विकार आत्म-वस्तु में ही उत्पन्न होते हैं, तथापि वे आत्म-वस्तु कदापि नहीं हो सकते।"२ ___डॉ. नरेंद्र भानावत ने परमात्म-भाव का विश्लेषण करते हुए लिखा है- परमात्मा की स्वतंत्रता जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये मुक्त होकर अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतबल के प्रकटीकरण की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता जीवन का सर्वोच्च मूल है, जिसे पाकर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। तीर्थंकर, अर्हत् केवली, सिद्ध आदि परमात्मा इस श्रेणी में आते हैं। आचार्य विजयलब्धि ने आत्मा और परमात्मा का विश्लेषण करते हुए व्याख्यात किया है"आत्मा की विशुद्धावस्था ही परमात्मावस्था या भगवद्दशा है। आत्मा की विशुद्ध को बताने हेतु ही उसे परमात्मा कहा जाता है। जैन शास्त्रकारों ने तो कहा है, जो आत्मा मोक्ष की ओर झांकती रहती है, मोक्षोन्मुख या मुमुक्षु बनी रहती है, वह एक दिन परमात्मा बनेगी ही।"४ - यद्यपि मूल स्वरूप की दृष्टि से आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निर्लेप और परमानंदमय है, किन्तु कर्मों के आवरण से उसका शुद्ध स्वरूप आच्छन्न है। शुद्ध स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिये कार्मिक आवरणों को उच्छिन्न करना आवश्यक है। उनके उच्छेद या नाश में सबसे बड़ा बाधक वह मन है, जो स्वभाव से हटकर विभाव में लीन है। 'देह आदि लाती है। देह, इंद्रिय पक्-पृथक मक या होता है। जाती है, ज्ञानार्णव में सिद्ध-पद-वर्णन जैन परंपरा में आचार्य शुभचन्द्र का नाम उभट विद्वान और योगी के रूप में अत्यंत प्रसिद्ध है। उन्होंने ज्ञानार्णव नामक महान ग्रंथ की रचना की। ज्ञानार्णव का अर्थ ज्ञान का सागर होता है। उन्होंने ज्ञान को योग के साथ विशेष रूप से जोड़ा, इसलिए इसमें योग की दृष्टि से अध्यात्मिक साधना का बड़े ही सुंदर रूप में विवेचन किया है। यह ग्रंथ बयालीस सर्गों में विभक्त है। प्रत्यक्षतलाया १. श्री अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग-२, पृष्ठ : १८८ (सुक्ति-सुधारस, खण्ड-२). २. गागर में सागर, पृष्ठ: १८. ३. जैन दर्शन : आधुनिक दृष्टि, पृष्ठ : १०. ४. भगवतीजी सूत्रना व्याख्यानो, पृष्ठ : १६१ (भाग-३, अंश-१). 284
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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