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- णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
बहिरात्म-अन्तरात्म-परमात्म-भाव
विभाव से स्वभाव की दिशा में आगे बढ़ते साधक की स्थिति, जो अशुभ से शुभ एवं शुभ से शुद्धभाव की दिशा में गतिशील होती है, बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा के रूप में व्याख्यात की गई है। बहिरात्मा निम्नतम और परमात्मा उच्चतम स्थिति है। 'साधनानुं हृदय' पुस्तक में इसका विशद विवेचन किया गया है।
(१) बहिरात्म-भाव
काय आदि बाह्य पदार्थों को आत्म-बुद्धि से समुपात्त करना- ग्रहण करना, धन, कौटुंबिकपारिवारिक जन मेरे अपने हैं, ऐसी ममत्त्व-युक्त बुद्धि द्वारा उनको अपनाना, उनमें आसक्त रहना बहिरात्म-भाव है। बहिरात्म-भाव-युक्त मनुष्य के लिए आत्मा का वह महत्त्व नहीं होता जो बाह्य पदार्थों का होता है।
(२) अंतरात्म-भाव
जो देह आदि को आत्मा नहीं मानता, आत्मा के तुल्य उन्हें महत्त्व नहीं देता, अपने को देह आदि बाह्य पदार्थों का अधिष्ठायक या नियामक मानता है, उसकी वह स्थिति अन्तरात्म-भाव कहलाती है।
बहिरात्म-भाव और अन्तरात्म-भाव में यह अंतर है कि बहिरात्मभावाविष्ट पुरुष देह, इंद्रिय आदि को आत्म-स्वरूप मानता है। अन्तरात्म-भावाविष्ट पुरुष देह और आत्मा को पृथक्-पृथक् समझता है। वह अनुभव करता है.. "मैं देह नहीं हैं, देह में स्थित हूँ, देह का नियामक या संचालक हूँ।"
अंतरात्म-भाव का लक्ष्य आत्मा है। आत्म-स्वरूप में रमण, परिणमन उससे घटित होता है। बहिरात्म-भाव नितांत भौतिक या परभावापन्न स्थिति है। अंतरात्म-भाव में बहिर्मुखता छूट जाती है, अन्तर्मुखता घटित होती है।
(३) परमात्म-भाव
चिद्रूप, चिन्मय, आनंदमय, नि:शेष, उपाधि-विवर्जित समस्त बाह्य उपाधियों से रहित, अप्रत्यक्षइंद्रियों से अगोचर, असंबंद्ध तथा अनंत गुणायुक्त आत्मा परमात्मा है, ऐसा ज्ञानी जनों ने बतलाया है। वैसी स्थिति प्राप्त करना परमात्म-भाव है।
१. साधना, हृदय, पृष्ठ : ११५, ११६. २. योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक-७८.
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