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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
का स्पर्श नहीं है। इसलिए उन्हें केसर, चंदन, पुष्पमाला आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। सिट भगवंतों में ग्लानि, परिश्रांति, निद्रा आदि का सर्वथा अभाव होने से उनको कोमल शय्या आदि की कोई अपेक्षा नहीं है।
वे सिद्ध भगवान् अनंत ज्ञान आदि अनेक उत्तम संपत्तियों से युक्त हैं तथा समग्र नयों की दृष्टि से विशुद्ध तप, संयम, ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र से युक्त हैं। उनका यश चारों ओर फैला हुआ है। वे विश्व के देवाधिदेव हैं। तीनों लोक के सभी भव्य जन उनकी सदैव स्तुति करते हैं।
भूतकाल में हुए, भविष्य काल में होने वाले तथा वर्तमान काल में विद्यमान समस्त अनंत सिद्धों को- सिद्ध स्वरूप पाने की इच्छा लिए मैं त्रिसंध्य-प्रात:, मध्याह्न एवं सायंकाल नमस्कार करता हूँ।
सिद्धत्व-प्रतिष्ठा का चित्रण
जैन जगत् के महान् क्रांतिकारी आचार्य, उद्भट विद्वान् श्री हरिभद्र सूरि ने अपने द्वारा रचित | षोडशक प्रकरण में परमात्म-प्रतिष्ठापना या सिद्ध-प्रतिष्ठापना के संदर्भ में बहुत ही सूक्ष्म विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने जिन-प्रवचन के विवेचन से अपनी व्याख्या शुरू की है। | वे लिखते हैं- जब जिन प्रवचन हमारे हृदय में स्वाध्यायादि द्वारा प्रतिष्ठित होते हैं, परमार्थतः
श्री जिनेश्वर परमात्मा ही हमारे हृदय में प्रतिष्ठित हो जाते हैं तथा हमारे सभी प्रयोजन अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं।
सभी प्रयोजन सिद्ध होने का कारण यह है कि जिनेश्वर प्रभु परम चिंतामणि-स्वरूप हैं। हमारे हृदय में उनके प्रतिष्ठित हो जाने पर उनके साथ समरसता-एकरूपता-एकानुभूति हो जाती है। यह समरससमापत्ति योगियों के लिए मात-स्वरूप है, निर्वाण रूप फल की साधिका है।
इसका तात्पर्य है कि यह आत्मा जब सर्वज्ञ के स्वरूप में उपयोग-युक्त हो जाती है, तब उसका उपयोग अन्यत्र नहीं जाता, वह स्वंय सर्वज्ञ हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि जिस-जिस वस्तु के उपयोग में आत्मा वर्तित होती है, वह उस-उस वस्तु के स्वरूप को धारण करती है।
जिस प्रकार निर्मल स्फटिक में जिसका प्रतिबिंब पड़ता है, वह उस मणि के वर्ण को धारण कर लेता है। उसी प्रकार निर्मल आत्मा परमात्म-स्वरूप को धारण करती है। उसे ही समापत्ति कहा जाता है। अथवा ध्याता, ध्यान और ध्येय के योग को भी समापत्ति कहा जाता है।
१. सिद्धभक्त्यादि संग्रह, श्लोक-७-९ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : ३०८, ३०९
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