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________________ प या व्रत का को तो मानते इसका आशय मान है । वह है। इसका का शुभ एवं ज्ञाता तथा नते हैं। इस आत्मा सर्वत्र हैं । बौद्ध 1 नेत्यत्वयुक्त -रूप द्रव्य अपने स्वरूप मोक्ष रूप कर्मों से है। एक कारण ण मिलने सम्यक् ज्ञान का उत्थान होने के लिए दर्शनमोहनीय और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम आदि होना अंतरंग कारण हैं तथा गुरु का उपदेश, स्वाध्याय आदि बाह्य कारण हैं। इन अंतरंग तथा वहिरंग कारणों के मिलने पर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र प्रकट होते हैं तथा कर्मों का विशेष क्षम अथवा क्षयोपशम हो जाने से सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र अत्यंत निर्मल होते हैं । उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पत्र का निख्या सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र की निर्मलता ही आत्मा की सम्पत्ति है। कर्मों का नाश करने के | लिए रत्नत्रय रूप यह संपत्ति आत्मा का शस्त्र है । इस शस्त्र के प्रबल प्रहार से घाति- आत्मा के मूल गुणों का घात करने वाले कर्म रूपी पाप अत्यंत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । आचार्य पूज्यपाद ने आगे सिद्धात्मा के परिमाण आदि के संबंध में प्रकाश डाला है, जो पूर्व संदर्भों में वर्णित किया जा चुका है। है सिद्ध भगवंतों के सुख के संबंध में उन्होंने लिखा है- सिद्ध परमात्मा को जो सुख प्राप्त होता है, वह केवल आत्मा से ही उत्पन्न होने वाला है। अन्य कोई प्रकृति आदि से उत्पन्न होने वाला नहीं इसलिए वह सुख अनित्य नहीं है वह सुख स्वयं अतिशय युक्त है। समस्त बाधाओं से वर्जित | है । अत्यंत विशाल एवं अनंत है । वह आत्मा के समस्त प्रदेशों में व्याप्त है। वह सुख न तो कभी कम होता है और न कभी बढ़ता है । सांसारिक सुख विषयों से उत्पन्न होते हैं । सिद्धों का सुख विषयों से उत्पन्न नहीं होता। वह स्वाभाविक है। सुख का प्रतिहन्त्री । रहित हैं। सांसारकि जीवों का सुख, दुःखों से मिश्रित है, 1 विरोधी दुःख है। सिद्ध दुःख से सर्वथा । परंतु सिखों का सुख सदा सुखरूप ही होता है । । सांसारिक सुख साता बेदनीय कर्म के उदय से होता है। उसमें फूलों की माला, चंदन, भोजन | आदि बाह्य सामग्री की अपेक्षा रहती है, किंतु सिद्धों का सुख दूसरी किसी अपेक्षा से रहित है। वह | सुख निरुपम - उपमा रहित है। अमित- अपरिमित है । शाश्वत है तथा सदैव रहने वाला है । उसका सामर्थ्य परमोत्कृष्ट और अनंत है, अतः वह सुख अनंत सुख कहलाता है। जैसे किसी जीव को प्राणांतक व्याधि की कोई पीड़ा या दुःख नहीं हो तो उसे पीड़ा को शांत करने | वाली किसी औषधि की आवश्यकता नहीं होती। जिस समय अंधकार का सर्वथा अभाव हो तथा सभी वस्तुएँ दृष्टिगोचर होती हों, उस समय दीपक की कोई जरूरत नहीं होती। उसी प्रकार सिद्धों को न | कोई दुःख है, न कोई पीड़ा। उनकी भूख और प्यास सदा के लिये नष्ट हो गई है, इसलिए उनको अनेक प्रकार के रसों से परिपूर्ण अन्न-जल का कोई प्रयोजन नहीं है। सिद्धों के किसी प्रकार की अपवित्रता १. सिद्धभक्त्यादि संग्रह, श्लोक-१-३ : नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत विभाग), पृष्ठ : ३०५, ३०६. 272
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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