SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन आदि का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, क्योंकि आत्मा के गुणों के नाश के लिए कोई तप या व्रत क पालन नहीं करता । चार्वाक कहते हैं कि आत्मा जैसा कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। उनमें से कई आत्मा को तो मानते हैं, परंतु भूत तथा भविष्य के साथ उसका संबंध नहीं मानते । इसका समाधान यह है कि आत्मा है और वह अनादिकाल से चली आ रही है तथा इसका आशय यह है कि वर्तमान गत आत्मा का अस्तित्व वर्तमान, भूत, भविष्य तीनों कालों में विद्यमान है। वह कर्मों से बंधी होने के कारण संसार में परिभ्रमण करती है । सांख्य दर्शन में विश्वास करने वाले ऐसा मानते हैं कि आत्मा कर्मों की कर्ता नहीं है । इसका निरसन (समाधान) करते हुए आचार्य कहते है कि आत्मा स्वयं ही कर्म करती है। उनका शुभ एवं | अशुभ फल भोगती है । कर्मों का सर्वथा, संपूर्ण रूप में नाश कर मोक्ष में जाती है। आत्मा ज्ञाता तथा द्रष्टा है । वह ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग से युक्त है । 1 सांख्य, मीमांसा, वेदांत और योग में विश्वास करने वाले आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं । इस संबंध में यह समाधान है आत्मा का परिमाण अपने शरीर प्रमाण जितना है अर्थात् एक आत्मा सर्वत्र व्यापक नहीं होती । 1 सांख्य, मीमांसा, वेदांत और वैशेषिक दर्शन के अनुयायी आत्मा को सर्वथा नित्य मानते हैं । बौद्ध आत्मा की उत्पत्ति और विनाश मानते हैं वे आत्मा को अनित्य मानते हैं। अर्थात् वे नित्यत्वयुक्त आत्मा में विश्वास नहीं करते। इसके समाधान में आचार्य उमास्वाति कहते हैं- आत्म-रूप द्रव्य उत्पाद व्यय एवं प्रीव्य युक्त है। आत्मा अपने ज्ञान आदि गुणों से युक्त है। अपने गुणों से सुशोभित होने पर ही उसे अपने स्वरूप की प्रतीति होती है मोक्ष की प्राप्ति होती है। पूर्वोक्त गुणयुक्त आत्मा मानी जाए तभी मोक्ष रूप साध्य की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं। यहाँ आत्मा का अपने गुणों से सुशोभित होने का अभिप्राय यह है कि उसके गुण, जो कर्मों से आवृत्त हैं, कर्मों के क्षीण हो जाने पर प्रकट हो जाते हैं । वही आत्मा का सुशोभित होना है । दर्शन, मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम सम्यक् दर्शन उत्पन्न होने के आंतरिक कारण हैं। गुरु का उपदेश, चर्या, जातिस्मरण- ज्ञान आदि बाह्य कारण हैं। आंतरिक और बाह्य कारण मिलने से सम्यक् दर्शन प्रकट होता है। १. तत्त्वार्थ - सूत्र, अध्याय- ५, सूत्र - ३०. 271
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy