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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण | मक्त होते हैं। मोक्ष प्राप्त करते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं। वे सब दु:खों के अंत का अनुभव करते हैं। नमन हेतु जो अष्ट कर्मों का अंत या विनाश करते हैं, वे अंतकृत कहे जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि वे कर्मों का अंत कर सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। अपने स्वरूप में निष्ठित होते हैं, निष्पन्न होते हैं। यह आत्म-विकास का चरम प्रकर्ष है। , अनुपमलज्ञान की देया। उन शियमूलक । कई ऐसे न्म पाकर ली श्रेणी ते हैं, जो सिद्धभक्त्यादि संग्रह में सिद्ध-स्वरूप जैसे भट्टी, धोंकनी आदि अपेक्षित साधनों के प्रयोग से स्वर्णमय पाषाण में से शुद्ध स्वर्ण की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार आत्मा के ज्ञान आदि सर्व उत्कृष्ट गुणों के समुदाय को आच्छादित करने वाले ज्ञानावरणीय आदि दोषों को ध्यान रूप अग्नि द्वारा दग्ध कर डालने से शुद्ध आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है। वह सिद्धि कहलाती है। वह आत्म-सिद्धि, जिन्होंने प्राप्त की अथवा जिनको शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति हुई अथवा जो कर्मों की प्रकृति के समुदाय से रहित हैं, उन सिद्ध भगवंतों के अनुपम गुणरूपी शृंखला से आकर्षित और परितुष्ट मैं शुद्ध आत्म-स्वरूप की सिद्धि के लिए वंदन करता हूँ।' इस संदर्भ में आचार्य श्री पूज्यपाद ने अन्य मतवादियों द्वारा स्वीकृत मोक्ष के स्वरूप की विवेचना की है। उन्होंने लिखा है बौद्ध मोक्ष का स्वरूप अभावात्मक मानते हैं। मोक्ष का स्वरूप अभावात्मक नहीं हो सकता। अभाव का अभिप्राय स्वयं का मिट जाना है। ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरूष है, जो अपना नाश करने हेतु प्रयत्न करे। तात्पर्य यह है कि मोक्ष के लिए प्रयत्न करना, बौद्धों के अनुसार अभाव के लिए प्रयत्न करना है। अभाव हो जाने पर, फिर बचता ही क्या है ? कहाँ मोक्ष होगा, कहाँ मोक्ष रहेगा ? कहाँ निर्वाण रहेगा ? वहाँ तो कुछ नहीं रहेगा। _ वैशेषिक दर्शन में बताया गया है- बुद्धि, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार- ये आत्मा के विशेष गुण हैं। इन गुणों का नाश हो जाना मोक्ष है। वास्तव में मोक्ष का स्वरूप आत्मा के गुणों का नाश होना नहीं है। यदि ऐसा माना जाए तो उनके तपोनुष्ठान, व्रतपालन श्रुतज्ञान है तथा संयत होकर, | १. सिद्धभक्त्यादि संग्रह, श्लोक-१ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : ३०५. 270 ARUNETTER
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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