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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन धवला में मंगलाचरण : सिद्ध-नमन पट्लंडागम के जीवस्थान के प्रारंभ में टीकाकार आचार्य वीरसेन सिद्ध भगवान् के नमन हेतु | पाठकों को प्रेरित करते हैं । वे लिखते हैं अनुपम अनंत-स्वरूप - जिनके स्वरूप का कभी अंत नहीं होता, अनिंद्रिय -- इन्द्रिय विवर्जित, | उपमा रहित, आत्मस्थ - आत्मस्वभावगत, सौख्ययुक्त, अनवद्य- दोष या पाप रहित, केवलज्ञान की। प्रभा के समूह से जिन्होंने दुर्नय - कुत्सितनय, मिथ्या सिद्धांत रूप अंधकार को पराभूत कर दिया। उन सिद्ध भगवान् को नमन करें। यहाँ आचार्य वीरसेन ने सिद्धों के जो विशेषण दिए हैं, वे साधनामूलक तथा अतिशयमूलक वैशिष्ट्य के द्योतक हैं। सिद्धत्व- आत्म विकास का चरम प्रकर्ष धवलाकार ने गतियों के वर्णन के संदर्भ में उल्लेख किया है- मनुष्य जाति में होने वाले कई ऐसे होते हैं, जिन्हें पाँच इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं । उसका आशय यह है कि मनुष्य योनि में भी जन्म पाकर कुछ विकलेन्द्रिय भी होते हैं, जिनके परिपूर्ण इन्द्रिय नहीं होती। उसके आगे विकास की अगली श्रेणी | आभिनिवोधिक ज्ञान- मतिज्ञान है, जिसको कतिपय मानव प्राप्त करते हैं। उनमें कई ऐसे होते हैं, जो ज्ञान प्राप्ति में आगे बढ़ते हैं वे श्रुतज्ञान प्राप्त करते हैं। मतिज्ञान, मननात्मक है। वह स्वगत है, श्रुतज्ञान की प्रतीति कराने में सक्षम होता है। मतिज्ञानी स्वयं जानता है। दूसरों को जताने की क्षमता उसमें श्रुतज्ञान द्वारा आती है। श्रुतज्ञान शास्त्राध्ययन से, गुरु- मुख से श्रवण से प्राप्त होता है । इसके आगे बढ़ता हुआ कोई अवधि ज्ञान प्राप्त करता है, मनःपर्याय ज्ञान प्राप्त करता है तथा इसके भी आगे कोई साधक केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं। कतिपय ऐसे हैं, जो सम्यक् - मिथ्यात्व युक्त होते हैं, कई सम्यक्त्वी होते हैं। कई संयतासंयतदेशव्रत होते हैं तथा कई संयमी जीवन अपनाते हैं । कुछ ऐसे है, जो बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थकर पद नहीं पाते। कतिपय अंतकृत् होकर १. पट्संडागम (धवला टीका समन्वित), खंड-१ पुस्तक-१, भाग-१ पृष्ठ: १. 269
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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