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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण itie de ते हैं तब बको एक प्रशमरति प्रकरण के विवेचन में श्री भद्रगुप्तविजय लिखते हैं- समस्त कर्मों का आत्मा से वियोग होना मोक्ष है। मोक्ष के दो भेद हैं- १. देश-विमोक्ष तथा २. सर्व-विमोक्ष । श्रावक अमुक अंश में कर्म-क्षय करते हैं, अत: उनका देश-विमोक्ष में अंतर्भाव होता है। साधु सब कर्मों का क्षय करते हैं, इसलिए उनका सर्व-विमोक्ष में अंतर्भाव होता है। कारण है, हेत, एक सिद्ध-पद का विश्लेषण दि प्राप्त षदखंडागम के प्रारंभ में मंगलाचरण के रूप में णमोक्कार मंत्र का उल्लेख हुआ है। पखंडागम पर धवला टीका के महान् रचनाकार आचार्य वीरसेन ने पंचपरमेष्ठि-पद की व्याख्या के अंतर्गत सिद्ध-पद का विश्लेषण करते हुए लिखा है-- सिद्ध, निष्ठित्त, निष्पन्न, कृतकृत्य तथा सिद्धसाध्य- ये शब्द एकार्थ वाचक हैं। त जीव क उसमें नहीं जा पति का क्रेयाओं की गति निष्ठित का अर्थ है, जिन्होंने समग्र कर्मों का निराकरण कर दिया है, वे सिद्ध-पद वाच्य हैं। इसी प्रकार निष्पन्न का अर्थ है, जो निष्पाद्य या निष्पन्न करने योग्य था, उसे जो निष्पन्न कर चुके हैं। कृतकृत्य- जो भी करने योग्य कार्य थे, उनको उन्होंने कर लिया है। उसी प्रकार जो सिद्ध-साध्य है- जो साधने योग्य था, उसे जिन्होंने साध लिया है। इन सभी पर्यायवाची शब्दों में सिद्धत्व का स्वरूप व्याख्यायित हुआ है। . वे बाह्य पदार्थों से निरपेक्ष, अनंत, अनुपम, सहज, अप्रतिपक्ष- प्रतिपक्षरहित, निर्बाध सुख को प्राप्त कर चुके हैं। निरुपलेप- उपलेप या कर्मावरण से विरहित हैं। अविचल, सुस्थिर स्वरूप को प्राप्त कर चके हैं। समस्त अवगुणों से विवर्जित हैं। नि:शेष- समस्त गुणों के निधान हैं, अपने चरम देह, मुक्त होते समय के अंतिम शरीर से कुछ कम दैहिक विस्तार युक्त हैं। कोष से- तूणीर से निकले हुए बाण के सदृश, वे संगरहित, आशक्ति-शून्य हैं। _ कहा है- सिद्ध भगवान् अष्टविध कर्मों से सर्वथा पृथक् हैं, विमुक्त हैं । समग्र दुःखों से छूट जाने के कारण वे परमशांतिमय हैं, निरंजन, नित्य तथा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघुत्व इन आठ गुणों से समायुक्त है। जो करणीय था, उसे संपन्न कर चुके हैं। तो वह सिद्ध रीरीक 1 जीव क्त के १. प्रशमरति प्रकरण, भाग-२, सूत्र ८. २. षड्खंडागम, पुस्तक-१, खण्ड-१, भाग-१, पृष्ठ : २०१. 268 02ttinuitsARIKusuyasawunee
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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