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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
अर्कमा
प्रत्येक समय में वे अवशिष्ट कर्म-प्रकृतियों को उत्तरोत्तर असंख्यात-गुण क्षीण करते जाते हैं।
प्रति समय असंख्यात गुणपूर्वक कर्मांशों को क्षीण करते-करते जब अंतिम समय में पहुँचते हैं तब अघाति कर्मों की त्रयोदश प्रकृतियों के असंख्यात गुण-कर्मांश अवशिष्ट रह जाते हैं। उन सबको एक साथ क्षीण कर डालते हैं। वैसा होते ही समस्त अघाति कर्म, समूल नष्ट हो जाते हैं। | औदारिक, वैक्रिय और कार्मण शरीर का, जो सब गतियों के योग्य है, संसार का मूल कारण है, सर्वथा त्याग कर उन तीनों से विमुक्त जीव स्पर्श-रहित, ऋजु-श्रेणी को प्राप्त कर विग्रह-रहित, एक समय में निर्बाध रूप में ऊर्ध्वगमन कर लोकाग्र भाग में संस्थित हो जाता है।
जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि से विमुक्त आत्मा, विमल, निर्मल सिद्धि-क्षेत्र में सिद्ध-पद प्राप्त कर लेती है।
आचार्य उमास्वाति आगे उनकी अवस्थिति का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं- विमुक्त जीव अधोगमन नहीं करता, नीचे नहीं जाता। उसमें गुरुत्व अर्थात् भारीपन का अभाव है, क्योंकि उसमें गुरुत्व हो ही नहीं सकता, वह अमूर्त है, भौतिक आकार से रहित है।
जिस तरह जहाज अपनी सीमा से आगे नहीं जा पाते, उसी तरह सिद्ध लोकांत के आगे नहीं जा सकते, क्योंकि वहाँ धर्मास्तिकाय का अभाव है। धर्मास्तिकाय के बिना गति नहीं होती। वह गति का निरपेक्ष हेतु है।
मुक्त-जीव में योग-क्रिया का अभाव है। मानसिक, वाचिक कायिक योग से- तद्गत् क्रियाओं से वह रहित है, इसलिए उसकी तिर्यक्-गति भी नहीं हो सकती। अत एव मुक्त- सिद्ध जीव की गति लोक के अंत तक ही होती है।
यहाँ एक शंका उपस्थित होती है, यदि मुक्त- मोक्ष-प्राप्त जीव के क्रिया नहीं है तो वह ऊर्ध्वगमन कैसे करता है ? उसका समाधान देते हुए कहा गया है कि यह गति पूर्व-प्रयोग से सिद्ध है। पहले जो गति थी, वह गति नहीं रही, किंतु तद्गत सूक्ष्म तीव्रता के कारण ऐसा होता है।
बंधे हुए कर्मों के सर्वथा उच्छिन्न हो जाने से, सिद्ध जीव शरीर और मन से रहित हैं। शारीरीक एवं मानसिक दु:ख शरीर और मन की वृत्ति की विद्यमानता के कारण होते हैं। सिद्ध- मुक्त जीव | इनका अभाव होने से शारीरिक एंव मानसिक दु:खों से रहित हैं। स्वभावत: वे सिद्धत्व या मुक्ति के सुख या आनंद में परिणत रहते हैं।'
१. प्रशमरति प्रकरण, अधिकार-२१, कारिका-२८२, २८३, २८६-२९५.
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