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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण। है, क्योंकि तब भी उसका प्राप्त होना निश्चित नहीं है। वह होता भी है और नहीं भी होता । उसे साक्षात् के सुख का पा गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन साहित्य में दो शब्द- नियमा और भजना प्रसिद्ध हैं। जहाँ निश्चित रूप से, नियमित रूप से कोई बात होती है, उसे नियमा कहा जाता है तथा जहाँ किसी और बात के हाने में निश्चितता नहीं होती है, होने या न होने के रूप में दोनों विकल्प रहते हैं, उसे भजना कहा जाता है। अंतर्गत जो इसका यह आशय है कि सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान के होने पर भी सम्यक चारित्र की प्राप्ति निश्चित नहीं है, किन्तु चारित्र लाभ के होने पर पूर्ववर्ती दोनों- सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन निश्चित रूप से सिद्ध होते ही हैं। ___ यह स्थिति ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं मोहनीय कर्मों के संपूर्णत: अपगम से अधिगत होती है, जिसकी फल निष्पत्ति मुक्ति के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। तत्त्वत: बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। : विमोक्ष से जो आत्म आ, उन्होंने तक अर्थात् में से किसी प में प्राप्त सिद्धत्व प्राप्ति का क्रम | त्रयोदश गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली मानसिक, वाचिक और कायिक योग का निरोध करते हैं। उसके 'सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति' नामक तृतीय शुक्ल-ध्यान होता है। उसके पश्चात् वह 'विगतक्रिय नामक शुक्ल-ध्यान को प्राप्त करता है। उस ध्यान के पश्चात् दूसरा कोई ध्यान उसके नहीं होता। सब योग निरूद्ध हो जाते हैं। योग निरोध के पश्चात् अर्थात् मन-योग, वचन-योग तथा श्वासोच्छ्वासमय क्रिया से निवृत्त होकर केवली प्रभु अपरिमित- अपार, असीम कर्म-निर्जरा करते हैं। कर्मों को निर्जीर्ण- नष्ट कर डालते हैं और संसार रूपी सागर से पार हो जाते हैं। व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति-ध्यान के समय वे शैलेशी-अवस्था प्राप्त करते हैं। व्युपरत-क्रिया-ध्यान का यह तात्पर्य है कि उस समय समस्त क्रियाएँ विशेष रूप से- संपूर्णतया उपरत या परिसमाप्त हो जाती हैं। परिणामस्वरूप वे शैलेष- मेरू पर्वत | के सदृश स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं। वह परमशांत अवस्था है। - संयम-बल एवं पराक्रम द्वारा लेश्या-रहित भाव से प्राप्त शैलेषी अवस्था का समय पाँच हस्व अक्षरों अ, इ, उ, ऋ, ल के उच्चारण जितना है। शैलेषी अवस्था के इन पाँच समयों की पंक्ति में ने कमी हो से एक की व भजनीय १. प्रशमरति प्रकरण, अधिकार-१५, गाथा-२३०, २३१, पृष्ठ : १६२. २. जैन सिद्धान्त कोश, भाग-३, पृष्ठ : ३२२. 266 CE MAP
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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