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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
ही है। सिद्ध सादि की कोई
यह भाव-यज्ञ है- गृहस्थ की भाव-पूजा है। यह मानव जीवन का परम फल है और क्रमश: अविच्छिन्नतया अभ्युदय-स्वर्ग आदि फल प्राप्त करा कर निश्चित रूप में मोक्ष प्राप्त कराता है।
___ मुक्ति में पँहुचे हुए श्री ऋषभादि परमात्मा की प्रतिष्ठा संभव नहीं है, क्योंकि वे तो बहुत दूर हैं। मंत्र आदि संस्कारों द्वारा उनका अधिष्ठान या सन्निधान संभव नहीं है। इसी प्रकार देवों की सांसारिक प्रतिष्ठा भी मुख्य नहीं हैं, क्योंकि वे देवता मंत्रादि द्वारा मूर्ति में आ ही जाएं, ऐसा नियम | नही है।
यों की दृष्टि | ना हुआ है।
अनंत सिद्धों करता हूँ।
इससे अपने मुख्य देवता को उद्दिष्ट करके अपने भाव में ही उनकी प्रतिष्ठा करना शक्य है। प्रतिष्ठा के विषय में यों चिंतन करना चाहिए कि मुक्ति में पहुचे हुए जो ऋषभादि परमात्मा हैं, वे सिद्ध हैं। वही मैं हूँ, ऐसा भाव आत्मा में उत्पन्न होना चाहिए, यह तात्त्विक दृष्टि से प्रतिष्ठा है।
द्वारा रचित क्ष्म विचार
आचार्य हरिभद्र सूरि ने सिद्धों की पूजा-अर्चना के प्रसंग में अध्यात्म-भावों का सुंदर निरूपण किया है, जो वास्तव में उनके जीवन की शुद्धानुभूति को प्रगट करता है। पूजा, उपासना, अर्चना या आराधना का लक्ष्य यह होता है कि आधारक आराध्य के परमोत्तम गुणों को आत्मसात् करने की दिशा में अग्रसर हो । वह उनसे उसी प्रकार की प्रेरणा प्राप्त करे। ऐसी प्रेरणा तभी प्राप्त होती है, जब उनकी उपासना, आराधना या ध्यान किया जाए, उनके भावात्मक स्वरूप को अपने अंत:करण में स्थापित करे। उसका पुन:-पुन: चिंतन करे, अनुभावन करे, इससे आराधक के मन के विकार दूर होंगे। विभाव-दशा मिटेगी, वह शुद्धोपयोगमयी स्थिति प्राप्त करेगा, सिद्धत्व को अपने अत:करण में प्रतिष्ठित करेगा।
परमार्थत: अवश्य ही
हैं। हमारे ती है। यह
तब उसका स वस्तु के
तत्त्वानुशासन में सिद्धों के ध्यान का निर्देश
श्री नागसेनाचार्य विरचित तत्त्वानुशासन में सिद्धों के ध्यान का संक्षेप में वर्णन आया है। वहाँ अर्हम् मंत्र की आराधना के अंतर्गत कहा गया है
जिन्होंने समस्त कर्मों को ध्वस्त कर डाला है, जो अमर्त्त हैं, ज्ञान से भास्वर- देदीप्यमान उन सिद्ध भगवान् के रूप में आत्मा का ध्यान करें।
- यहाँ ग्रंथकार ने विशेष रूप से आत्मा का ध्यान करने का निर्देश किया है। आत्मा का ध्यान अनेक विधियों से, अनेक रूपों में किया जाता है। ध्यान का एक प्रकार यह है- ध्यानी ऐसा चिंतन करे"मेरी विशुद्ध आत्मा सिद्ध-स्वरूप है। मैं जीव के रूप में एक सीमित कर्म-बद्ध अवस्था में हूँ। वह
गरण कर कहा जाता
१. षोडशक प्रकरण, अध्याय-२, श्लोक-१४, १५, अध्याय-६, श्लोक-१४, अध्याय-८, श्लोक-६-१२ :
नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : २९३, २९४. २. तत्त्वानुशासन, श्लोक-१८७ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : २३०.
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