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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन जैसे सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण आदि पहले प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, किंतु आगम, ज्योतिष आदि शास्त्रों द्वारा उनका पहले ही ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार मोक्ष भी आगम प्रमाण से सिद्ध है। यदि प्रत्यक्षतया सिद्ध न होने के कारण मोक्ष को स्वीकार न किया जाए तो अन्यमतवादियों के अपने सिद्धांत के भी वह विरूद्ध होगा, क्योंकि वे भी किसी न किसी ऐसे पदार्थ को स्वीकार करते हैं, जो अप्रत्यक्ष है अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं है। पुनश्च, एक प्रश्न उपस्थित होता है, बंध से छूटना जब मोक्ष है, तो पहले बंध के कारणों का विवेचन किया जाना चाहिए। वैसा करने से ही मोक्ष के कारणों का विश्लेषण सुसंगत या उपयुक्त हो सकता है। इसका समाधान यह है कि आगे अष्टम अध्याय में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग का वर्णन है, जो बंध के कारण हैं । यह सही है कि बंध पहले और मोक्ष बाद में होता है, इसलिये | पहले बंध के हेतुओं का उल्लेख करना उचित था फिर भी आश्वासन हेतु मोक्ष मार्ग का निर्देश किया गया है । एक उदाहरण है कारावास में पड़ा हुआ व्यक्ति, यदि उसको बंध के कारण बतलाए जाएं तो वह सुनकर भयभीत हो जाता है, निराश हो जाता है। यदि उसे कारावास से मुक्त होने का उपाय बतलाया जाए तो वह आशान्वित हो जाता है, उसी प्रकार मोक्ष के कारणों को सुनकर जिज्ञासु, मुमक्षु | व्यक्ति के मन में आशा और आश्वासन उत्पन्न होते हैं । इसलिए मोक्ष के कारणों को ही पहले | निर्देशित किया गया है, जो तत्त्वार्थ के पहले सूत्र में आया है। मुक्त पुरुषों का अनाकार है : अभाव नहीं अन्यमतवादियों की ओर से एक शंका की जाती है कि जब मुक्तात्माओं का कोई आकार नहीं है, वे अमूर्त हैं तो उनका अस्तित्व ही कैसे माना जाए ? इसका समाधान देते हुए ग्रंथकार लिखते हैं कि मुक्तात्मा जब अपने अंतिम शरीर का परित्याग करती है, तब अतीत शरीर के १/३ न्यून आकार- विस्तार लिए होती है । इसलिए उनका अभाव नहीं | किया जा सकता । लोकाकाश के समान असंख्य प्रेदशयुक्त जीव शरीरानुविधायी होता है । अर्थात् मुक्त जीव के प्रदेशों का विस्तार उस द्वारा छोड़े हुए अंतिम शरीर के ढाँचे के अनुरूप होता है । इसलिये शरीर के न रहने पर भी प्रदेशों को विस्तार या फैलाव का प्रसंग नहीं आता, क्योंकि नाम-कर्म के कारण आत्मा १. तत्वार्थ राजवार्तिक, पृष्ठ १-३. : 263
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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