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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण भेदों की संहरण संख्यात धेक होते नामक - इसका इन चार 'उपदेश कतिपय मतवादी ज्ञान और वैराग्य से मुक्ति मानते हैं। वैराग्य का आशय विषयों से विरक्तता है। यहाँ ग्रंथकार का अभिप्राय पातंजल-योग में आस्थाशील साधकों, योगियों की ओर है जो विरक्ति प्रधान होते हैं। कई सैद्धांतिक केवल क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं। इनकी ऐसी मान्यता है कि नित्य-कर्म करने से ही मोक्ष हो जाता है। बौद्धों के अनुसार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान- इन पाँच स्कंधों का निरोध निर्वाण है। ___ सांख्य दर्शन ऐसा मानता है कि जब प्रकृति और पुरुष में भेद-विज्ञान या भिन्नत्व की प्रतीति हो जाती है, तब पुरुष की शुद्ध चैतन्य-मात्र-स्वरूप में आत्म संप्रतिष्ठा हो जाती है, वही मोक्ष है। सांख्य-दर्शन में पुरुष आत्मा के लिए प्रयुक्त है। न्याय दर्शन के अनुसार बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार- ये आत्मा के विशेष गुण हैं। इनका उच्छेद मोक्ष है। प्राय: सभी मतवादी सामान्यत: इस बात में एकमत हैं कि कर्मों के बंधन का नाश कर आत्मा द्वारा अपने स्वरूप को प्राप्त किया जाना मोक्ष है। प्रश्न उपस्थित होता है, मोक्ष जब प्रत्यक्ष रूप में दृष्टिगोचर नहीं होता, तब उसके मार्ग की खोज करने से क्या प्रयोजन है ? यह सही है कि मोक्ष प्रत्यक्ष-प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं होता, किंतु उसको अनुमान-प्रमाण से जाना जा सकता है। _एक उदाहरण है, जैसे घट-यंत्र- रँहट का परिभ्रमण उसके धुरे के घूमने से होता है और धुरे का भ्रमण उससे जुते हुए बैल के घूमने पर निर्भर है। यदि बैल का घूमना रुक जाए तो धुरे का घूमना बंद हो जाता है। उसी प्रकार कर्म का उदय बल के समान है, चार गतियाँ धुरे के समान है। उसी से शारीरिक, मानसिक वेदना रूप रँहट घूमता है। जब कर्मोदय की निवृत्ति हो जाती है तो चतुर्गतिमय चक्र रुक जाता है। उसके अवरुद्ध हो जाने से संसार रूपी घट-यंत्र का परिभ्रमण समाप्त हो जाता है। वही मोक्ष है। | इस प्रकार इस सामान्य अनुमान द्वारा मोक्ष सिद्ध हो जाता है। सभी शिष्टवादी- अनुशासनशील जन मोक्ष के प्रत्यक्ष न होने पर भी उसका अस्तित्व स्वीकार करते हैं तथा उसके मार्ग की गवेषणा करते हैं। सब उसी :: सभी को प्राप्त गर के । सब मतभेद केवल ति न 262 960 SHA SHARE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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