SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरवती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण के प्रदेशों का प्राप्त शरीर के अनुसार छोटे-बड़े रूप में संकोच और विस्तार होता है। यहाँ मुक्तात्मा कर्म रहित हो जाती है, इसलिए कर्मजनित परिवर्तन, परिसर्पण या विस्तार वहाँ कदापि नहीं होता। आदि शास्त्रों द्ध है। यदि सपने सिद्धांत जो अप्रत्यक्ष कारणों का उपयुक्त हो पतथा योग है, इसलिये नर्देश किया ए जाएं तो । का उपाय नासु, मुमक्षु से ही पहले सिद्धों का अव्यय, अविनश्वर सुख सिद्धों का सुख अव्यय- अविनश्वर कहा गया है। वह सांसारिक विषयों से अतीत या निरपेक्ष है। अर्थात् वहाँ उनकी जरा भी अपेक्षा नहीं रहती। वह अत्यंत अव्याबाध- बाधा रहित है। ___ एक शंका उपस्थित की जाती है। मुक्त जीव तो अशरीरी हैं तथा उसके आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं फिर उसे सुख कैसे होगा ? क्यों होगा ? वार्तिककार उसका समाधान करते हुए लिखते हैं कि सुख शब्द का प्रयोग चार अर्थों में होता है (१) विषय, वेदना का अभाव (२) विपाक (३) कर्मफल एवं (४) मोक्ष । 'अग्नि सुखप्रद है, वायु सुखकर है।' इत्यादि में सुख शब्द विषय के अर्थ में हैं। जब रोग आदि द:ख मिट जाते हैं, तब मनुष्य कहता है- मैं सुखी हूँ। यहाँ सुख शब्द अभाव के अर्थ में है। जब पुण्य कर्मों का विपाक- पकना हो जाता है, वे परिपक्व हो जाते हैं, फल देने की स्थिति में आ जाते हैं, तब इन्द्रियों के विषयों द्वारा सुख अनुभव होता है। इस प्रकार विपाक और कर्मफल में सुख का प्रयोग होता है। जब कर्म और क्लेशों से छुटकारा हो जाता है तथा मोक्ष के अनुपम सुख का अनुभव होता है, वहाँ सुख शब्द मोक्ष के अर्थ में है। _ कुछ लोग सुख को सुषुप्तावस्था के सदृश मानते हैं। जब व्यक्ति नींद में होता है तो उसे कोई दु:ख नहीं होता। यह मान्यता यथार्थ नहीं है, क्योंकि सुषुप्त अवस्था तो दर्शनावरणीय कर्म के उदय |से जनित श्रम, क्लम- परिश्रांति या थकावट, भय, रूग्णता, काम आदि निमित्तों से पैदा होती है तथा | मोह विकारमय है। उससे जो सुख माना जाता है, उस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है, वह सुख तो इन्हीं विकारों का एक रूप है। मोक्ष का सुख निरंतर सुखानुभव रूप परिणमन किए होता है। समग्न संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिस द्वारा उस सुख को उपमित किया जा सके । वह सर्वथा अनुपम, उपमा रहित है। - अनुमान लिंग या चिह्न से और उपमान प्रसिद्धि से उत्पन्न होता है। यह मोक्ष का सुख किसी लिंग से- बाहरी चिह्न से अनुमित नहीं होता। उसका कोई ऐसा बाह्य रूप नहीं है, जिसे देखकर उसका अनुमान किया जा सके तथा ऐसा कोई प्रसिद्ध पदार्थ नहीं है, जिसकी उपमा देकर उसे व्यक्त र नहीं हैं, परित्याग अभाव नहीं न जीव के । शरीर के रण आत्मा १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, सूत्र-४, पृष्ठ : ६४३. 264
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy