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णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक अनुशीलन
क्षेत्र
क्षेत्र का अर्थ स्थान है । वर्तमान भाव की दृष्टि से सभी मुक्त जीवों का स्थान एक ही क्षेत्र है। अर्थात् वे आत्म-प्रदेश या आकाश-प्रदेश हैं। भूतकाल की दृष्टि से इनके सिद्ध होने का स्थान एक नहीं है, क्योंकि जन्म की दृष्टि से पन्द्रह कर्म भूमि में से कोई किसी एक कर्म भूमि से सिद्ध होते हैं। कोटें किसी दूसरी से तथा संहरण की दृष्टि से समग्र मनुष्य क्षेत्र से सिद्ध हो सकते हैं।
काल
वर्तमान दृष्टि से सिद्ध होने का कोई लौकिक कालचक्र नहीं है, क्योंकि एक ही समय में सिद्ध होते हैं। भूतकाल की दृष्टि से, जन्म की अपेक्षा से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी आदि में जन्मे हुए जीव सिद्ध होते हैं । संहरण की दृष्टि से उक्त सभी कालों में सिद्ध होते हैं ।
गति
वर्तमान की दृष्टि से सिद्धगति में ही समस्त सिद्ध हैं । भूतकाल की अपेक्षा से यदि अंतिम भव को दृष्टि में रखकर विचार किया जाए तो मनुष्य गति से तथा अंतिम से पहले के भवों को लेकर विचार करें तो चारों गति से जीव सिद्ध होते हैं ।
लिंग
लिंग का अर्थ वेद या चिह्न है । वेद का तात्पर्य पुरुषत्व, स्त्रीत्व तथा नपुंसकत्व का संवेदन है। वर्तमान की दृष्टि से सिद्ध अवेद- लिंग-त्रय शून्य हैं। भूतकाल की दृष्टि से पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक इन तीन वेदों से युक्त हो सकते हैं
।
एक दूसरा आशय यह भी है कि वर्तमान की दृष्टि से सिद्ध अलिंग ही हैं । भूत की दृष्टि से यदि भाव-लिंग या आंतरिक योग्यता का विचार करें तो स्व-लिंग, वीतरागता से ही सिद्ध होते हैं ।
यदि द्रव्य लिंग की दृष्टि से विचार किया जाय तो स्व-लिंग- जैन-लिंग, जैन-वेश, पर-लिंग| जैनतेर - वेष तथा गृहस्थ - लिंग - गृहीवेश इन तीनों में सिद्ध होते हैं।
तीर्थ
कोई तीर्थंकर रूप में कोई अतीर्थंकर रूप में सिद्धत्व प्राप्त करते हैं । अतीर्थंकरों में कोई तीर्थ प्रवर्तित हो, तब होते हैं और कोई तीर्थ प्रवर्त्तमान न हो तब भी होते हैं ।
चारित्र
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