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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
महत्त्वपूर्ण
विमर्श
अन्य पदों है, यहाँ
गाव होने
पूर्व-प्रयोग का अभिप्राय यह है कि जीवद्रव्य का स्वभाव पद्गल-द्रव्य की भांति गतिशील है। दोनों में इतना ही अंतर है कि पुद्गल स्वभाव से ही नीचे की ओर गति करता है तथा जीव ऊपर की ओर गति करता है।
जीव अन्य प्रतिबंधक द्रव्य के साथ या बंधन के कारण गति नहीं करता। जब कर्मों का संग या कर्मों के बंधन टूट जाता हैं, कोई प्रतिबंधक हेतु नहीं रहता, तब मुक्त-जीव को अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति करने का अवसर मिलता है। वह पूर्व-प्रयोग के निमित्त से ऐसा करता है। पूर्व-प्रयोग का अभिप्राय यह है कि पूर्वबद्ध कर्म के छूट जाने के बाद भी उससे प्राप्त वेग या आवेश के कारण वह ऊर्ध्वगति करता है। जैसे कुंभकार चाक को घुमाकर अपने हाथ और डंडे को हटा लेता है तो भी वह चाक पहले से प्राप्त वेग के कारण घूमता रहता है। वैसे ही कर्म-मुक्त जीव भी पूर्व-कर्म से प्राप्त वेग के कारण स्वभावानुसार ऊपर की ओर जाता है।
संग के अभाव का अर्थ यह है कि कर्म जीव के साथ मिले हुए थे। जब उनका अभाव हो जाता है तो जीव अपने स्वभाव को प्राप्त कर लेता है। कर्मों के संग के अभाव का अर्थ- कर्म-बंधन का टूटना है। बंधन के कारण ही जीव गति करने में स्वतंत्र नहीं है। बंधन टूटने पर गति की बाधकता मिट जाती है।
सम्यक्त्व क्ष प्रगट [ अभाव
के लिए
जाता है,
के अन्त
सिद्धों की विशेषताएं
क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध-बोधित, ज्ञान, अवगाहना, अंतर, संख्या तथा अल्प-बहुत्व- इनके आधार पर सिद्धों की विशेषताओं का विचार किया जाता है।'
विशेष
गति ते हैं
युक्त
सिद्धों के स्वरूप को विशेष रूप से जानने हेतु उनसे संबंधित बारह पक्षों का निर्देश किया गया है। यहाँ प्रत्येक पक्ष के आधार पर सिद्धों के स्वरूप पर चिंतन अपेक्षित है।
गति, लिंग आदि सांसारिक भाव हैं। ये भाव सिद्धों में नहीं होते, इसलिए वास्तव में उनमें कोई विशेष भेद घटित नहीं होता। फिर भी अतीत की दृष्टि से उनमें भी भेद की कल्पना की जा सकती है।
१. तत्त्वार्थ-सूत्र, अध्याय-१०, सूत्र-७, पृष्ठ : २३८.
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