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णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक अनुशीलन
पर उन्होंने अनेकानेक रचनाएँ कीं, जो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । गद्य में भी जो लिखा, वह बहुत महत्त्वपूर्ण
है ।
संस्कृत के विविध ग्रंथों में अनेक प्रसंगों पर गमोक्कार मंत्र का विवेचन हुआ है। वहाँ अन्य पदों की तरह सिद्ध पद की व्याख्या प्राप्त होती है। जिन-जिन ग्रंथों में सिद्ध-विषयक वर्णन आया है, यहाँ उसे संक्षेप में उपस्थित किया जाएगा।
तत्त्वार्थ सूत्र में सिद्ध की व्याख्या
आचार्य उमास्वाति मोक्ष की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि बंध के हेतुओं का अभाव होने | से तथा निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है । समस्त कर्मों का क्षय ही मोक्ष है ।"
मोक्ष या सिद्धत्व प्राप्ति के अन्य कारणों का विश्लेषण करते हुए वे लिखते हैं- क्षायिक सम्यक्त्ता आायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन के सद्भाव, औपशमिक आदि भाव तथा अभव्यत्व के अभाव से मोक्ष प्रगट होता है। अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व आदि सिद्धत्व का स्वरूप है। यह औपशमिक आदि भावों का अभाव होने पर व्यक्त होता है, क्योंकि औपशमिक आदि भाव सर्वथा क्षय - युक्त नहीं होते ।
उपशम का अर्थ एक बार शांत होना है। जो भाव एक बार शांत होता है या कुछ अवधि के लिए। शांत होता है, वह समय पाकर फिर उभर जाता है। इसलिए ऐसे भावों का जब अभाव हो जाता है, समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब सिद्धावस्था प्राप्त होती है ।
जब संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, मुक्त जीव तुरंत ऊर्ध्वगति करता है तथा लोक के अन्त | तक- अग्रभाग तक ऊपर चला जाता है ।
सिद्धत्वोन्मुख ऊर्ध्वगमन :
जब समग्र कर्म क्षीण हो जाते हैं, जीव मुक्त हो जाता है, सिद्ध हो जाता है तब उसकी ऊर्ध्वगति क्यों होती है ? यह एक प्रश्न है । आचार्य उमास्वाति इसके कारणों का प्रतिपादन करते. पूर्वप्रयोग, संग का अभाव तथा बंधन का टूटना- इन कारणों से मुक्त जीव गति के परिणाम से युक्त हुए कहते हैंहोकर ऊपर जाता है।'
१ तत्त्वार्य सूत्र अध्याय १०, सूत्र- २, ३, पृष्ठ २३५.
२. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय- १०, सूत्र- ४, ५, पृष्ठ: २३६, २३७.
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३. तत्वार्थ सूत्र, अध्याय-१०, सूम-६, पृष्ठ २३८.
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