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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण । संपन्न मुनि न स्थितियों भगवान महावीर के पश्चात् उत्तरवर्ती आचार्यों ने आगमों की परंपरा को यथावत् कायम रखते डा जैन धर्म का उद्योत किया। इस महान् अभियान मे जैन मुनियों का सबसे अधिक योगदान रहा है। जैन दर्शन ने 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष:'- के अनुसार, क्रिया या उच्च चारित्र पर बल देते हुए मामाराधना को भी बहुत महत्त्व दिया। मुनिगण अपने धर्म-सिद्धान्तों का तो अध्ययन करते ही थे. अन्यान्य धर्मों और दर्शनों का भी गहन ज्ञान अर्जित करते थे। IT की है। दिल्ली के हामंत्र की न से भस्म याख्या के पाठ प्रकार यह सिद्ध सिद्ध हैं। न्म-मरण कार है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या ऐसा करना उनके लिए आवश्यक था ? क्या अन्य धर्मो के शास्त्र, जो मिथ्या-श्रुत के अंतर्गत स्वीकृत हैं, अध्ययन कर वे भूल नहीं करते थे ? इसका जैन दर्शन की दृष्टि से बड़ा ही सुंदर समाधान है। कहा गया है कि सम्यक्त्वी द्वारा परिग्रहीत मिथ्या-श्रुत भी सम्यक्श्रुत हो जाता है। मिथ्यात्वी द्वारा परिग्रहीत सम्यक्-श्रुत भी मिथ्या-श्रुत हो जाता है। अत: साधु-साध्वियों द्वारा अन्य शास्त्रों के पठन-पाठन में काई बाधा नहीं आती। यही कारण है कि स्व-पर-समयज्ञ अर्थात् अपने सिद्धांतों और अन्य धर्मों के सिद्धांतों के जानने वाले मुनिगण का बड़ा महत्त्व था। इसका परिणाम यह हुआ कि साधु-साध्वी विभिन्न विषयों के अध्ययन में जुटे । विद्याराधना में बहुमुखी विकास किया। संस्कृत-भाषा और प्राकृत-भाषा का परस्पर बड़ा घनिष्ठ संबंध है। संस्कृत शास्त्रीय दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण भाषा है। सहस्राब्दियों के साहित्यिक प्रयोग के कारण इस भाषा के शब्दों में ऐसा वैशिष्ट्य है कि यह गहन विषयों को बड़े ही विशद रूप में प्रगट करने में समर्थ है। साथ ही साथ अल्पतम शब्दावली में विस्तीर्ण अर्थ को व्यक्त करने की इसमें अत्यधिक क्षमता है। व्याकरण की दृष्टि से संस्कृत एक परिष्कृत और परिनिष्ठित भाषा है। संस्कृत के अध्ययन की दिशा में जैन मुनियों का विशिष्ट ध्यान आकर्षित हुआ। अच्छे-अच्छे सुयोग्य विद्वान् बने। उन्होंने यह चिंतन किया कि संस्कृत में रचिते ग्रंथ विशेष रूप से विद्वद्भोग्य होंगे। विद्वज्जन उनके अध्ययन में विशेष रूचि लेंगे। यदि एक भी विद्वान् उनकी प्रेरणा से सद्बोधि की दिशा में प्रेरित हो तो यह बहुत बड़ा लाभ होगा। जैसे एक दीपक से सहस्रों दीपक जलं सकते हैं, वैसे ही एक विद्वान या ज्ञानी से सत्प्रेरित होकर अनेकानेक सुलभबोधिजन लाभान्वित हो सकते हैं। इस चिंतन के परिणामस्वरूप उन्होंने विविध विधाओं में बहुत से ग्रंथों की रचनाएं कीं, जो संस्कृत-साहित्य की अमूल्य निधि है। व्याकरण, काव्य, कोष, नीति, ज्योतिष एवं आयुर्वेद आदि पर, विशेष रूप से आध्यात्मिक विषयों में है, जो षा थी। के रूप में 256
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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