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________________ SENSES उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण । विक नहीं परिणत हो दर्शन है, निज भाव होता है। श्री कानजी स्वामी आत्मप्रसिद्धि में समयसार का विश्लेषण करते हुए एक स्थान पर सम्यक्दर्शन के संबंध में प्रतिपादित करते हैं "सम्यक्-दर्शन होने से समस्त गुण एक साथ पूर्ण विकसित नहीं हो जाते, इसलिए गुण-भेद हैं, परन्तु बस्तुरूप से समस्त गुण अभेद रूप हैं, इसलिए समस्त गुणों का अंश तो एक ही साथ विकसित हो जाता है।" आचार्य नानेश ने मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का भेद स्पष्ट करते हुए लिखा है- “मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों दो प्रकार की नींव की ईंटें हैं। मिथ्यात्व संसार के नश्वर सुखाभासों का महल खड़ा करता है तो सम्यक्त्व की नींव पर मोक्ष का महल खड़ा होता है, जो एक भव्य एवं विकासशील आत्मा का चरम लक्ष्य माना गया है।"२ "मुक्ति का मंगलमय मार्ग सम्यक् साधना से प्राप्त होता है। सम्यक्-साधना के लिए सम्यक्-ज्ञान एवं सम्यक्-दर्शन की आवश्यकता होती है। सम्यक्-ज्ञान एवं सम्यक्-दर्शन की अनुपस्थिति में व्यक्ति धर्म-तत्त्व की पहचान नहीं कर सकता।"३ -स्वस्थता, ते, प्रतीति रहता है। विबोध -चारित्र । सम्यक् सिद्धों के गुण सिद्ध णमोक्कारावलिका में सिद्धों के एक सौ आठ गणों का वर्णन है। वहाँ सिद्धों को नमस्कार करते हुए प्रतिपादन किया गया है- जिन्होंने तीर्थंकरों के तीर्थ में रहते हुए सिद्धि प्राप्त की तथा तीर्थ के बिना एवं तीर्थ से बाहर रहते हुए जाति-स्मरण आदि ज्ञान द्वारा प्रतिबोध प्राप्त कर सिद्धि प्राप्त की, उन तीर्थ-सिद्ध, अतीर्थ-सिद्ध भगवान् को नमस्कार है। । इसी प्रकार तीर्थ-सिद्ध, अतीर्थ-सिद्ध, तीर्थंकर-सिद्ध, अतीर्थकर-सिद्ध, स्वयं-बुद्ध-सिद्ध, प्रत्येक-बुद्ध-सिद्ध, बुद्ध-बोधित-सिद्ध, स्त्रीलिंग-सिद्ध, पुरुषलिंग-सिद्ध, नपुंसकलिंग-सिद्ध, स्वलिंग-सिद्ध, अन्यलिंग-सिद्ध, गृहस्थलिंग-सिद्ध, एक-सिद्ध, अनेक-सिद्ध को नमस्कार है। _ज्ञान, पद, तपश्चरण, लब्धि आदि पूर्ण अवस्थाओं में रहते हुए जो क्रमश: राग-द्वेष का क्षय कर वीतराग बन जाते हैं। अष्ट-कर्म-क्षय कर सिद्धत्व पा लेते हैं, उन पूर्ववर्ती अवस्थाओं का उल्लेख करते हुए नमस्कार किया गया है। जैसे परमावधि ज्ञानी, मन: पर्यवज्ञानी, आचार्य पदवर्ती, उपाध्याय पदवर्ती, ण करते। ही स्वल्प नेकाचित् RA १. आत्मप्रसिद्धि, पृष्ठ : ३६. २. आत्मसमीक्षण, पृष्ठ : ११६. ३. अर्चना की उज्ज्वल ज्योति, पृष्ठ : ७४. सिद्ध णमोक्कारावलिका, गाथा-१-१०८ : नमस्कार-स्वाध्याय (प्राकृत-विभाग), पृष्ठ : १९४-२०२. 254 RESENT
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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