________________
णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
परभावों के परित्याग का यह तात्पर्य है कि वह रागादि पर परिणामों को, जो स्वाभाविक नहीं है, वैभाविक हैं, छोड़ देता है, निश्चयनय के अनुसार वह रत्नत्रय-स्वरूप मोक्ष-मार्ग में परिणत हो जाता है।
निश्चय-नय पर आश्रित जीव में- प्राणी में जो आत्मा है, वही ज्ञान है, जो ज्ञान है, दर्शन है, वही चरण- चारित्र है और वही शुद्ध चेतना है।
जब राग एवं द्वेषात्मक भाव विनष्ट हो जाते हैं, तब अत्यंत शुद्ध आत्म-स्वरूप तथा निज भाव उत्पन्न होता है। वैसा होने पर योग-शक्ति से योगियों में परम आनंद विलसित- स्फुरित होता है।
एकत्वसप्तति में योग का लक्षण बताते हुए लिखा है- साम्य-समता, स्वास्थ्य-स्वस्थता, समाधि, योग- चित्त-निरोध एवं शुद्धोपयोग- ये यब योग-वाचक हैं। अनुचिन्तन
ग्रंथकार का ऐसा अभिप्राय है कि शुद्ध निश्चय-नय के अनुसार आत्म-स्वरूप की अनुभूति, प्रतीति सम्यक् दर्शन है। ऐसे पुरुषों को वे योगी की संज्ञा देते हैं। योगी आत्म-ध्यान में निरत रहता है। उसके समस्त विकल्प मिटने लगते हैं।
इस प्रकार आचार्य देवसेन ने सम्यक दर्शन को अध्यात्म-योग के साथ या आत्मावबोधआत्मानुभूति के साथ जोड़ा है। ऐसे सम्यक् दर्शन की पृष्ठभूमि पर सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र विकसित होते हैं। ____ “दर्शन रहित ज्ञान अज्ञान कहा जाता है। दर्शन का तात्पर्य यहाँ सम्यक्, यथार्थ दर्शन है। सम्यक् । दर्शन को आत्मा की आँख और मुक्ति की पाँख कहा गया है।" __ श्री विजयरामचन्द्र सूरीश्वर ने सम्यक् दृष्टि जीव की अन्तर्वृत्ति की निर्मलता का विश्लेषण करते हुए बतलाया है कि सम्यक् दृष्टि द्वारा गृहस्थावस्था में पापाचरण होते हुए भी बहुत ही स्वल्प कर्मबन्ध होता है, जिससे उसके कर्म का निर्ध्वंसत्त्व नहीं होता अर्थात् उसके कर्मों का निकाचित् । बन्ध नहीं होता। ऐसा बन्ध होता है, जो तपश्चरण द्वारा ध्वस्त- निर्जीर्ण किया जा सकता है।
१. तत्त्वसार, पर्व-५७, ५८, पृष्ठ : ११६-११९. २. एकत्वसप्तति, श्लोक-२५, पृष्ठ : ११७. ३. अनुप्रेक्षानां अजवाळा, पृष्ठ : ११. ४. श्री जिनभक्तिनो महोत्सव, पृष्ठ : ३८.
253