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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध पद का निरूपण
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पुन: एक शंका उत्पन्न होती है, यदि ऐसा है तो पहले आचार्यों को नमस्कार करना चाहिए क्योंकि किसी काल में जब अरिहंत आदि का ज्ञान आचार्यों के उपदेश द्वारा ही होता है । इसलिए वे ही अत्यंत उपकारी हैं ।
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ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आचार्यों को उपदेश देने का सामर्थ्य अरिहंत के उपदेश से ही प्राप्त होता है । आचार्य स्वतंत्र रूप से उपदेश देते हुए स्वतंत्र रूप से अर्थों का प्रतिपादन नहीं करते । वास्तव में अरिहंत ही सब अर्थों के ज्ञापक- बताने वाले हैं। अत: आचार्य आदि को नमस्कार करने के बाद अरिहंतों को नमस्कार करना अनुचित है ।
उदाहरणार्थ- कोई भी मनुष्य परिषद् को प्रणाम कर फिर राजा को प्रणाम करे, ऐसा नहीं होता ।
आचार्य अभयदेव सूरि ने णमोक्कार मंत्र के पाँचों पदों की जो व्याख्या की है, वह अत्यंत पांडित्यपूर्ण है। विविध प्रकार से इन पाँचों पदों की व्युत्पत्ति और विश्लेषण करते हुए उन्होंने जो तात्त्विक विवेचन किया है, वह मननीय है ।
पाँचो पदों के संदर्भ में द्वितीय सिद्ध पद का विशेष विवेचन करना प्रस्तुत शोध-ग्रंथ का विषय होने से आगे सिद्ध के संदर्भ में विवेचन, समीक्षात्मक परिशीलन- पर्य्यालोचन किया जाएगा।
सिद्ध-पद का विश्लेषण
महानिशीथ सूत्र का प्रसंग है- गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- प्रभो ! पंच मंगल णमोक्कार महामंत्र का उपधान कैसे करना चाहिए। इस पर भगवान् ने पंच मंगल णमोक्कार महामंत्र का विश्लेषण करते हुए उनको समाधान दिया ।
"जिन्होंने निष्प्रकंप, अचल, शुक्ल-ध्यान आदि द्वारा अचिन्त्य आत्म-शक्ति के सामर्थ्य से पराक्रमपूर्वक | योग-निरोध आदि हेतु अत्यंत प्रयत्न कर, परम आनंदरूप, महोत्सवरूप, महाकल्याणरूप मोक्ष सिद्ध कर लिया, वे सिद्ध कहलाते हैं। पुनश्च आठ प्रकार के कर्मों का क्षय कर जिन्होंने सिद्धत्व प्राप्त किया, वे सिद्ध हैं। उनके बंधे हुए कर्म भस्म हो गए, सर्वथा क्षीण हो गए, इसलिए वे सिद्ध कहलाते हैं। अथवा जिनको समस्त प्रयोजन प्राप्त हो गए, सिद्ध हो गए, समाप्त हो गए या करणीय- करने योग्य शेष नहीं रहा, वे सिद्ध हैं ।
१. आवश्यक-निर्युक्ति, गाथा - १०२१.
२. श्री महानिशीथ सूत्र : नमस्कार - स्वाध्याय (प्राकृत विभाग), पृष्ठ ७८.
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