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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण रा उनकी आम्नाय के के कारण उपधि का अर्थ सन्निधि भी होता है। जिनकी सन्निधि या सान्निध्य में श्रुत का- ज्ञान का लाभ होता है, जिसे सुनकर श्रुत-ज्ञान प्राप्त किया जाता है अथवा इनके पास से उपाधि- सुंदर विशेषण या विशेषताएँ प्राप्त की जाती हैं, वे 'उपाध्याय' कहे जाते हैं। अर्थात् जिनका सान्निध्य ही आय- इष्ट फलों का कारणभूत है, जो इष्ट फलप्रद हैं, वे उपाध्याय कहे जाते हैं। मानसिक पीडा को आधि कहा जाता है। आधि की आय या लाभ आध्याय होता है। अथवा आधि का अर्थ कुबुद्धि है। कुबुद्धि का लाभ आध्याय कहा जाता है। आध्याय का एक अर्थ दुर्ध्यान या दषित ध्यान है। आध्याय और अध्याय को जिन्होंने उपहृत- नष्ट कर डाला है, वे उपाध्याय कहे जाते हैं, ऐसे उपाध्यायों को नमस्कार है। । सुसंप्रदाय, समीचीन- सुप्रतिष्ठित परंपरा से चले आते जिन-वचन का अध्ययन कराकर, भव्यजीवों को जो विनीत बनाकर, उपकार करते हैं, वे उपाध्याय भगवंत नमस्करणीय हैं। चारों का नाचार्य हैं, चार्य कहे कार है करते हैं, T भव्य णमो लोए सव्वसाहूणं ज्ञान आदि द्वारा जो मोक्ष की साधना करते हैं अथवा सब प्राणियों के प्रति जो समत्व का भाव रखते हैं- समता की दृष्टि रखते हैं, वे साधु कहे जाते हैं। __ आवश्यक-नियुक्ति के अनुसार जो निर्वाण- मोक्ष के साधक योगों की- तपश्चरण, ध्यान आदि की साधना करते हैं, सब जीवों पर समत्व रखते हैं, वे साधु कहे जाते हैं। संयम का पालन करने वालों की जो सहायता करते हैं, वे साधु कहे जाते हैं। यह साधु शब्द की व्युत्पत्ति है। प और ना है। है, ज्ञान आचार्य 'सर्व साधु शब्द से सामायिक आदि विशेषणों से युक्त- प्रमत्त, पुलाक आदि अथवा जिनकल्पिक, प्रतिमा-कल्पिक, परिहार-विशुद्धि-कल्पिक, स्थविर-कल्पिक, स्थित-कल्पिक, स्थितास्थित-कल्पिक, कल्पातीत, प्रत्येक-बुद्ध, स्वयं-बुद्ध, बुद्ध-बोधित, भरत-क्षेत्र आदि क्षेत्रों में तथा सुषम-सुषम आदि कालों में होने वाले सभी प्रकार के साधुओं को समझना चाहिए। समस्त गुणवान् साधु-वृंद बिना किसी भेद-भाव के नमनीय- नमस्कार करने योग्य हैं, यह बताने के लिए सर्व शब्द का यहाँ ग्रहण किया गया है। इसी न्याय से सर्व शब्द का प्रयोग अर्हत आदि पदों में भी कर लेना चाहिए। द्वज्जन १. आवश्यक-नियुक्ति, गाथा-१०१०. 242
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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