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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
अर्थ- आशय या अभिप्राय के उपदेष्टा हैं। अत: धर्म-तत्त्व की आकांक्षा रखने वालों द्वारा उनकी मर्यादापूर्वक सेवा की जाती है। इस कारण वे आचार्य कहे जाते हैं, कहा है
जो सूत्र एवं अर्थ के वेत्ता-ज्ञाता हैं, आचार्य के गुणों से समायुक्त हैं, गच्छ- धर्म-आम्नाय के मेढिभूत, आलंबन रूप हैं, गण की चिन्ता से विप्रमुक्त हैं, गण की अति सुन्दर व्यवस्था करने के कारण निश्चिंत हैं, अर्थ-सिद्धांतों की वाचना देते हैं, उपदेश देते हैं, वे आचार्य हैं।
जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार- इन पाँच प्रकार के आचारों का मर्यादापूर्वक पालन करते हैं अथवा जो मर्यादापूर्वक चार-विहार या विचरण करते हैं, वे आचार्य हैं, जो ऐसे आचार का स्वयं अनुसरण करते हैं, दूसरों को वैसा करने का उपदेश देते हैं, आचार्य कहे जाते हैं। आचार्य के व्यक्तित्व का द्योतक एक बहुत ही सुन्दर श्लोक प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है
आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि ।
स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कथ्यते ।। अर्थात् जो सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों के अर्थ का आचयन- मननपूर्वक संचयन अथवा संग्रहण करते हैं, स्वयं विशुद्ध- निरतिचार आचार का सम्यक् परिपालन करते हैं एवं अपने शिष्य-शिष्याओं तथा भव्यभक्तों को आचार में स्थापित करते हैं, उनको आचार्य कहा जाता है।"३
णमो उवज्झायाणं
उपाध्याय शब्द में 'उप' तथा 'अधि उपसर्ग एवं ईण् धातू है। इनमें 'उप' का अर्थ समीप और 'अधि' का अर्थ आधिक्य है। ईण् धातु का अर्थ स्मरण करना या अध्ययन करना, गमन करना है। अर्थात् जिनके पास जाकर जिन-वचनों का, सूत्रों का अधिकता के साथ अध्ययन किया जाता है, ज्ञान प्राप्त किया जाता हैं, उन्हें 'उपाध्याय' कहा जाता है। “सामान्यत: उपाध्याय सूत्रदाता तथा आचार्य अर्थदाता कहे जाते हैं। ४ ।
आवश्यक-नियुक्ति में कहा गया है- जिनेश्वर सर्वज्ञ प्रभु द्वारा प्ररूपित द्वादशांगी को विद्वज्जन स्वाध्याय कहते हैं। उनका जो उपदेश करते हैं, सूत्र-वाचना देते हैं, वे उपाध्याय कहे जाते हैं।"
१. नमस्कार-स्वाध्याय (प्राकृत-विभाग), पृष्ठ : ४. ३. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग-२, पृष्ठ : ५४.
(ख) नवपद प्रकाश, पृष्ठ : १२३.
२. आवश्यक-नियुक्ति, पृष्ठ : ५. ४. (क) उपाध्याय-पद, पृष्ठ : ३. ५. आवश्यक-नियुक्ति, गाथा-१००१.
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