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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन । ही ओऽम् या जैन शास्त्रों में स्वीकृत 'ॐ' स्वरूप, नवकार का ही बीजरूप है।" ___“पंचपरमेष्ठी मंत्र अपूर्वकल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न, कामकुंभ तथा कामधेनु के समान सब प्रकार | की इच्छाएं पूर्ण करने वाला है। इसलिए यह शिवसुख- मोक्ष प्राप्त करा सकता है।" “अरिहंत की आराधना उनके अतिशयों से आकर्षित होकर नहीं वरन उनके वीतराग-भाव से आकर्षित होकर करणीय है।"३ _ “मन्त्रराज के 'अरिहन्ताणं' पद से महिमा-सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि अरिहंताणं पद का संस्कृत पर्याय 'अर्हताम्' होता है। अर्ह- पूजायाम् इस धातु से 'अर्हत' शब्द बनता है, जो पूजा के योग्य हैं, वे अर्हत् हैं। पूजा का अर्थ तो आकर्षण या महिमा है। अर्थात् महिमा से, विशिष्ट अरिहन्तों के ध्यान से महिमा-सिद्धि प्राप्त होती है।"४ । | “वीतराग अरिहंत के प्रति हृदय के असीम अनुभाव से विषयों के प्रति आसक्ति टूटते देर नहीं लगती। इससे विरति का महान् भाव आ सकता है।"५ णमो सिद्धाणं जिन्होंने जाज्वल्यमान शुक्ल-ध्यान रूप अग्नि से कर्मों को शीघ्र दग्ध कर डाला है, वे विधि से- व्युत्पत्ति की दृष्टि से सिद्ध हैं । अथवा षिधुगतौ- पिधु धातु गति अर्थ में है। उसके अनुसार जो निर्वृत्ति-- मुक्तिरुपी नगर में चले गये हैं, वे सिद्ध हैं। __ अथवा 'षिध् संराद्धौ' के अनुसार जिन्होंने अपना लक्ष्य सिद्ध कर लिया, वे सिद्ध हैं। अथवा जो आत्म-शास्ता बने हैं, सबके लिये मंगल रूप बने हैं, वे सिद्ध हैं। जो सिद्ध हैं, वे नित्य हैं, क्योंकि उनकी स्थिति का कभी पर्यवसान- अंत नहीं होता, सदैव अपनी स्थिति में-सिद्ध अवस्था में विद्यमान रहते हैं। प्रख्यात, भव्य प्राणियों द्वारा उनके गुण-समूह भलीभाँति परिज्ञात हैं, इसलिए वे सुप्रसिद्ध हैं। कहा है जिन्होंने पूर्व-संचित कर्मों को दग्ध कर डाला, जो मुक्तिरूपी प्रासाद- महल के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हैं, जो ख्यात- सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, जो अनुशास्ता- आत्मानुशासक हैं, जो अपना लक्ष्य साध चुके हैं, वे सिद्ध मेरे लिए मंगलप्रद हैं। १. णमोकार सागर स्मारिका, पृष्ठ : C-53. ३. अरिहंतने ओळखो, पृष्ठ : १. .५. नवपद प्रकाश (अरिहंत पद-१), पृष्ठ : १६४. २. नवकार सिद्धि, पृष्ठ : ६३. ४. मंत्र जपो नवकार, पृष्ठ : ५७. ६. नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत-विभाग), पृष्ठ : ४. 239 ANSERIENTAREER SUE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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