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________________ REPARAMERICUATIRHANDRRIORAIPSARAATMAL Bos उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण य है। ६ आठ योग्य कहा गया है दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नान्कुरः। कर्म-बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ।। जैसे बीज के अत्यंत दग्ध होने पर- सर्वथा जल जाने पर अंकुर नहीं निकलता, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के सर्वथा दग्ध हो जाने पर, क्षीण होने पर, संसार रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता-जन्म-मरण या आवागमन रूप भव-चक्र में फिर आना नहीं पड़ता।' वीतराग अरिहंत देव भीषण संसार रूप बन में भटक जाने से भयभ्रांत प्राणियों को अनुपम आनंदमय, परमपद मोक्षस्थान रूप नगर का मार्ग दिखलाते हैं, इसलिए वे परम उपकारी हैं। वे नमस्करणीय हैं। "भौतिक सृष्टि में Law of Gravity कार्य करता है तथा आध्यात्मिक सृष्टि में Law of Grace अपना कार्य करता है। Gratitude द्वारा हम हलके बनते हैं, जिससे हमें प्रभु का Grace ऊपर ले जाता है। “णमो पद Gratitude (कृतज्ञ-भाव) को सूचित करता है। अरहताणं पद द्वारा Grace (अनुग्रह) प्राप्त होता है।" - "वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में भगवान ऋषभ प्रथम तथा भगवान वर्धमान- महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे।"४ "श्री अरिहंत परमात्मा ने जिस निर्मल शासन की स्थापना की, उसकी सेवा करना प्रत्येक आत्मा का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। यह शासन-सेवा, शासन में बताए गए मार्ग की आराधना द्वारा शक्य है।"५ _ “अरिहंत-पद सिद्ध-पद का माध्यम है। आचार्य-पद अरिहंत-पद का माध्यम है तथा उपाध्यायपद आचार्य-पद का माध्यम है। साधु-पद मूलरूप में सर्वव्यापी है एवं सिद्ध-पद फलरूप में सर्वव्यापी है।"६ 'अ' से अरिहंत-सिद्ध, 'आ' से आचार्य, 'उ' से उपाध्याय और 'म' से मुनि अर्थात् पंचपरमेष्ठी १. (क) श्री अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग-१, पृष्ठ : ६१० एवं भाग-३, पृष्ठ : ३३४. (ख) तत्त्वार्थाधिगम-भाष्य-१०, ७. २. अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग-५, पृष्ठ : ४९०. (सुक्ति-सुधारस, खण्ड-५, पृष्ठ : ७५) ३. अध्यात्मपत्र-सार, पृष्ठ : १९. ४. मंत्रों की महिमा, पृष्ठ : ५. ५. जैन मार्गनी पिछाण, पृष्ठ : ३. ६. नमस्कार मीमांसा, पृष्ठ : १३१. 238 FREE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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