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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन । द्रव्य से दो हाथ, दो पैर, मन और मस्तक द्वारा सुप्रणिधान रूप नमस्कार हो, ऐसा अभिप्राय है भाव से आत्मा को अरहंत आदि के गुणों में लीन करना है। नमस्कार किसे हो? अरहंतों को नमस्कार हो। जो देवों द्वारा रचित अशोक वृक्ष आदि आन महाप्रतिहार्य रूप पूजनीय हैं, वे 'अरहंत' कहे जाते हैं। आवश्यक-नियुक्ति में इस संबंध में लिखा है अरहंति बंदण-नमंसणाणि, अरहंति पूयसक्कारं । सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण बुच्चंति ।। अर्थात् जो वंदन और नमस्कार के योग्य हैं, पूजनीय हैं, सत्कार के योग्य हैं, सिद्धि-गमन के योग्य हैं, वे जिनेश्वर भगवान् अरिहंत कहलाते हैं। ऐसे अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो । अरहंताणं पद में प्राकृत-भाषा की शैली के नियमानुसार षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है, किंतु । वह चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में है, क्योंकि नम: शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति आती है। 'अरहंताणं' शब्द का एक और अर्थ भी निकलता है। 'रह:' का अर्थ एकांत या गुप्त स्थान है। अंतर का अर्थ पहाड़ की गुफा आदि का मध्यभाग है। भगवान् सर्वज्ञ हैं। अत: उनके लिए संसार की। सभी वस्तुएं दृष्टि-गम्य हैं। कोई भी वस्तु उनके लिये अज्ञात नहीं है। इसलिये भगवान् ‘रह:' और 'अंतर' न होने से- 'अरहोन्तर्' कहे जाते हैं। ऐसे अरहोन्तर् (अरहंत) भगवान् को नमस्कार हो। रथ शब्द से सब प्रकार का परिग्रह उपलक्षित है। वृद्धावस्था आदि भी उससे उपलक्षित है, उनका जिन्होंने विनाश कर डाला, वे अरथान्त या अरहंत हैं। वे नमस्करणीय हैं। आसक्ति-रहित भी इस शब्द का अर्थ होता है। अरहंत राग का क्षय कर चुके हैं अथवा अत्यधिक रागादि के हेतुभूत सुंदर पदार्थों से भिन्न, असुंदर या विपरीत पदार्थों का संपर्क होने पर भी वीतरागत्व के कारण, जो अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, वे अरिहंत हैं। 'अरिहंताणं' ऐसा पाठांतर भी है। उसका अर्थ कर्म-रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले हैं ! आवश्यक-नियुक्ति में कहा है कि समस्त जीवों के शत्र-रूप आठ कर्मों का नाश करने के कारण, वे। 'अरिहंत' कहे जाते हैं। कहीं-कहीं 'अरुहताणं' पाठ भी है। इसका अर्थ जिनमें मान आदि का रोह- उदभव नहीं होता. वे अरुहंता हैं, क्योंकि उनके कर्म-बीज का क्षय हो चुका है। RTISEDRIVE २. आवश्यक-नियुक्ति, गाथा-९२१. १. आवश्यक-नियुक्ति, गाथा-८९०. ३. आवश्यक-नियुक्ति, गाथा-९२०. 237 TREATRE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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