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जैन - वाङ्मय में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं, जहाँ तात्त्विक, स्वरूपात्मक एवं कारण-कार्यात्मक आदि अनेक अपेक्षाओं से सिद्ध-पद का विविध रूपों में विश्लेषण - विवेचन हुआ
उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
जैन धर्म, दर्शन या साधना का परम प्राप्य सिद्ध-पद ही है । अत: उसकी गरिमा और महिमा से जिज्ञासु तथा मुमुक्षुवृंद अवगत रहें, प्रेरित रहें, इसे विद्वान् आचार्यों और ग्रंथकारों ने अपने ध्यान में रखा, क्योंकि साहित्य सर्जन का लक्ष्य 'स्वांतः सुखाय' होने के साथ-साथ 'सर्वजनोपकाराय भी होता है। अत एव समस्त लोगों के उपकार हेतु लेखकों ने अपने शास्त्र ज्ञान तथा अनुभूति के | आधार पर जो लिखा, वह वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
इस अध्याय में जैन- वाङ्मय के अनुसार समीक्षात्मक दृष्टि से सार-संक्षेप प्रस्तुत करने का प्रयास उद्दिष्ट है।
णमोक्कार- विवेचन
व्याख्याप्रज्ञप्ति-: - सूत्र के मंगलाचरण में णमोक्कार मंत्र आया है। नवांगी टीकाकार आचार्य | अभयदेव सूरि ने उसका विशेष विवेचन किया है। पंच परमेष्ठी पदों में से द्वितीय सिद्ध- पद का | समीक्षात्मक परिशीलन तथा पर्यालोचन प्रस्तुत शोध-प्रबंध का विषय है। अतः जैन धर्म के सर्व
| सम्मत, सर्वमान्य णमोक्कार मंत्र के पाँचों पदों का पृष्ठभूमि के रूप में विश्लेषण करना अपेक्षित मानते हुए, यहाँ पर आचार्य अभयदेव सूरि द्वारा किया गया विवेचन उपस्थित किया जा रहा है, जो सिद्ध-पद
के
ॐ सूक्ष्म चिंतन, अनुशीलन के प्रसंग में उपयोगी सिद्ध होगा ।
णमो अरिहंताणं
आवश्यक-निर्युक्ति में ऐसा विवेचन है कि णमो अरहंताणं पद में नमः शब्द नैपातिक है। उसका अर्थ द्रव्य-संकोच और भाव-संकोच है।
१. समरो मंत्र भलो नवकार, पृष्ठ : ४२.
२. (क) आगमदीप, आगम-५, पृष्ठ : ९.
३. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग-४, पृष्ठ : १४७-१५७.
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(ख) आगमदीप, आगम-४०-४५, पृष्ठ ११.
४. जैन ज्ञान- कोश, खंड ३, पृष्ठ : ३१.