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________________ NGOORKETORE गमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन आंतरिक तप का संबंध मन और आत्मा के साथ है। इन दोनों प्रकार के तप का जो ज्ञानी साधक भलीभाँति आचरण करता है, शीघ्र ही समग्र संसार से जन्म-मरण, आवागमन से सदा के लिए विप्रमुक्त हो जाता है, सिद्धावस्था पा लेता है। shadesaalounil e am सर्व दु:ख विमुक्ति का पथ सूत्रकार दु:ख-विमुक्ति का पथ बताने से पूर्व कहते हैं- समस्त दु:ख अनादिकाल से चले आ रहे हैं। दु:खों से समूल छूटने का उपाय मैं बतला रहा हूँ। वह एकांत हितप्रद है। उसे पूर्णत: चित्त लगाकर श्रवण करो। दु:खों से छूटने के पथ-दर्शन से पूर्व सूत्रकार जो ऐसा कहते है, उसका भाव यह है कि वे जो प्रतिपादित कर रहे हैं, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। बड़ी सावधानी और जागरुकता से सुनना चाहिए। उसमें एकांतरूप से, निश्चितरूप से सबका हित ही हित है। सूत्रकार द्वारा यों जोर देकर कहना श्रोताओं के लिए बड़ा ही प्रेरणा स्वरूप है। वे आगे लिखते हैं- संपूर्ण ज्ञान के प्रकाशन, अज्ञान और मोह के विवर्जन तथा राग और द्वेष के संपूर्णत: नाश से जीव मोक्ष को प्राप्त करता है, जो एकांत सुखरूप है। गुरुजनों और वृद्धों की सेवा, अज्ञानी जनों के संपर्क का विवर्जन, स्वाध्याय, एकांतवास, सूत्र तथा अर्थ का सम्यक् चिंतन, धृति-धैर्य- का अनुसरण करने से साधक का ज्ञान प्रकाशित होता है। अज्ञान और मोह नष्ट होते हैं। राग-द्वेष आदि सारे दोष जो जीव को संसार में बांधे रखते हैं, क्षीण हो जाते हैं। वैसा होने पर जीव सब बंधनों से, दुःखों से विमुक्त हो जाता है।' । यहाँ मोक्ष-प्राप्ति के मुख्य रूप से तीन कारण बताये हैं। ज्ञान का उद्योत, अज्ञान और मोह का विनाश तथा राग एवं द्वेष का अंत । इन तीनों को प्राप्त करने के लिये गुरुजनों की सेवा आदि की आराधना करना आवश्यक है। महापुरुषों की सेवा करने से ही मनुष्यों में उत्तम गुण निष्पन्न होते हैं और वे स्वाध्याय आदि का मार्ग अपनाते हैं। जिस प्रकार सत्पुरुषों की सेवा आवश्यक है, वैसे ही अज्ञानी जनों से दूर रहने की भी आवश्यकता है क्योंकि उनकी संगति से संस्कार विकृत होते हैं। अध:पतन होता है। PARMARRENOUSMADHANEHA समस्त कर्मों और दु:खों से छूटने का क्रम वीतराग भावोद्यत साधक क्षण भर में ज्ञानावरणीय-कर्म का नाश कर देता है तथा जो कर्म | १. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-३०, गाथा-३७. २. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-३२, गाथा-१, पृष्ठ : ५७२. ३. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-३२, गाथा-२,३, पृष्ठ : ५७२. 227
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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