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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार किया करना सय अंतर्महर्त-प्रमाण बाकी रहता है, तब वे योग-निरोध में प्रवृत्त होते हैं। वे सूक्ष्म-क्रिया पाती नामक शुक्लध्यान में लीन होते हैं। सबसे पहले तथा क्रमश: योगों का निरोध करते हैं।। तत्पश्चात वे औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के लिए छोड़ देते हैं। इस प्रकार सर्वथा शरीर हित होकर वे ऋजु-श्रेणी द्वारा एक समय में अस्पृशद् गतिरूप ऊर्ध्व-गति से सीधे साकारोपयोग-युक्त मिट बद्ध, मुक्त और परिनिर्वत हो जाते हैं। सब दु:खों का अंत करते है। श्रमण भगवान महावीर ने सम्यक्त्व-पराक्रम-अध्ययन का यह सार बतलाया है।' त्सर्ग रु ही धिक है त्तम समीक्षा योग-निरोध के पश्चात् सिद्धत्व पाने के क्रम का यहाँ निरूपण किया गया है। जब योगों का निरोध हो जाता है, कर्मों का क्षय हो जाता है तो औदारिक और कार्मण-शरीर छूट जाता है। उस समय जीव की ऊर्ध्वगति होती हैं। गति की दो श्रेणियाँ मानी गई हैं- ऋज-श्रेणी और वक्र-श्रेणी। मक्त जीवों का ऊर्ध्वगमन ऋजुश्रेणी द्वारा होता है, अर्थात् वे सीधे सिद्धशिला की दिशा में गति करते हैं। वे सीधे आकाश-प्रदेश की सरल-मोड़ रहित पंक्ति से गमन करते हैं। वक्र-श्रेणी मोड़ युक्त होती है। मुक्तजीव उस श्रेणी से ऊर्ध्वगमन नहीं करते। वन-श्रेणी से अमुक्त जीव जहाँ-जहाँ उन्हें जन्म लेना होता है, उस ओर गति करते हैं। यहाँ अस्पशद्-गति का उल्लेख हुआ है, उसका अभिप्राय यह है कि मुक्त-जीव अपने आत्म-प्रदेशों के साथ अवगाह-युक्त आकाश-प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य आकाश-प्रदेशों का स्पर्श नहीं करते हुए गति करते हैं। __ अमुक्त जीव ऐसा नहीं करते, जब वे गति करते हैं तो उनकी गति स्पृशद्-गति कहलाती है क्योंकि उनका गमन आकाश के प्रदेशों का स्पर्श करते हुए होता है। तप से विप्रमोक्ष - उत्तराध्ययन-सूत्र के तीसवें अध्ययन का नाम तपोमार्ग-गति है। तप के मार्ग से साधना की ओर गति करना या आगे बढ़ना इसका भाव है। निर्जरा के बारह भेद तपश्चरण के रूप में स्वीकृत हैं। तप आभ्यंतर और बाह्य के रूप में दो प्रकार का है। _पहले से छ: भेद तक जो तपों का विधान हुआ है, वे बाह्य तप कहे जाते हैं। सातवें से बारहवें तक भेद आंतरिक तप में आते हैं। दोनों ही तप आत्मा के कल्याण के लिए आवश्यक हैं। बाह्य तप का अधिक संबंध शरीर के साथ है। शरीर और इंद्रियों को नियंत्रित करना उसका लक्ष्य है। १. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-२९, सूत्र-७४, पृष्ठ : ५२३. 226
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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