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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
जो ज्ञानी दा के लिए
आत्मा के दर्शन का आवरण करता है, उसका भी वह क्षय कर डालता है, और अंतराय-कर्म को भी क्षीण कर देता है। ऐसा करने के बाद वह समस्त भावों को जानता है, देखता है और मोह एवं अंतराय रहित हो जाता है। वह अनास्रव हो जाता है। उसका कर्म-प्रवाह रुक जाता है। वह ध्यान और समाधि से युक्त हो जाता है। आयुष्य का क्षय हो जाने पर वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दीर्घकालीन कर्म और समस्त दु:ख जो उसको सतत पीड़ित करते थे, उन सबसे वह छुटकारा पा लेता है।
अनादि काल से आती हुई राग-द्वेष आदि रूप व्याधियों से विमुक्त हो जाता है। प्रशस्त, सर्वोत्कृष्ट एकांत, निश्चित रूप से सुखी हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है। उसके लिए फिर कुछ करना शेष नहीं रहता।
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त: चित्त
कि वे जो
चाहिए। र कहना
र द्वेष के
सूत्र तथा । अज्ञान
पर्यवलोकन
* उपर्युक्त रूप से सर्व-विमुक्ति का जो पथ बतलाया गया है, उसका सारांश यह है जीव घाति और अघाति दो प्रकार के कर्मों से बद्ध होता है। घाती का अर्थ घात करनेवाले या मिटानेवाले हैं। कर्म आत्मा के मूल गुणों का घात करते हैं, उन्हें घाति कहा जाता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय- ये चार घाति कर्म है।
वीतराग-भावोद्योत साधक- इन चार कर्मों का क्षय करता है। वह सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लेता है। फिर वह आसव-निरोध की दिशा में अग्रसर होता है। सर्वज्ञ-अवस्था में भी योग-आम्रव विद्यमान रहता है। तब तक मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ छूटती नहीं। अशुभ नहीं होती किन्तु शुभ होती रहती हैं। अशुभ तो पहले ही बंद हो जाती हैं। शुभ को भी रोकना आवश्यक है। संसारावस्था में शुभ या पुण्यात्मक प्रवृत्तियाँ किसी अपेक्षा से उपादेय हैं, किन्तु वे बंधरूप ही हैं। मुक्ति प्राप्त करने के लिए उनको भी रोकना आवश्यक है। इसलिए केवल योगों का निरोध करते हैं। इस संबंध में पहले यथाप्रसंग वर्णन आ चुका है। फिर वह शुक्ल-ध्यान की उत्तरोत्तर आराधना द्वारा समाधि-अवस्था प्राप्त कर लेता है। आयुष्य-कर्म का क्षय कर मोक्षावस्था पा लेता है। वैसी स्थिति में वह सब विकारों से रहित हो जाता है। आत्मा की वह परम आनंदावस्था है।
हो जाते
मोह नादि की होते हैं वैसे ही ते हैं।
सिद्धिगत जीवों का विशेष निरूपण
उत्तराध्ययन-सत्र में एक स्थान पर सिद्ध जीवों के विषय में अनेक अपेक्षाओं से वर्णन आया है. जिससे उनके स्वरूप, स्थिति आदि विशेषताओं का विशेष ज्ञान होता है।
जैसे पहले कहा जा चुका है- जैन शास्त्रों में जो वर्णन आते हैं, वे विस्तार-रुचि पुरुषों को लक्षित
नो कर्म
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१. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-३२, गाथा-१०८-११०, पृष्ठ : ५९६,
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