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________________ णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन damasyHRS समीक्षा ब्रह्मचर्य शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसका अर्थ बड़ा व्यापक है। ब्रह्म में- आत्मा में चरण करना या आत्मस्वरूप में रमण करना ब्रह्मचर्य है। आत्मास्वरूप में रमण तब सिद्ध होता है, जब मनुष्य संसार के बाह्य भोगों में रमण करना त्याग देता है। बाह्य भोग पाँचों इंद्रियों से संबंधित हैं। वे अनेक प्रकार के हैं। सभी त्याज्य हैं। उन भोगों में तीव्रतम या सबसे अधिक- प्रबल 'काम' है, इसलिए उसे अब्रह्मचर्य कहा है। उसके त्याग का भगवान् ने बहुत जोर देकर उपदेश किया क्योंकि संसार में उसीके लिये लोग धन, वैभव आदि का संग्रह करते हैं। अब्रह्मचर्य से आदमी विरत हो जाए तो वह अन्यान्य आकांक्षाओं से भी छूट सकता है। वैसा होने पर उसे ब्रह्मचर्य समाधि प्राप्त हो जाती है। अर्थात् वह बाह्य आकर्षणों से मुक्त होकर अपनी आत्मा के विशुद्ध-भाव में रमण करने लगता है। जिन शासन : मक्ति का मार्ग भरत आदि अनेक राजाओं ने जिनशासन का अवलंबन कर मुक्ति प्राप्त की। इस संबंध में उत्तराध्ययन-सूत्र में वर्णन आया है, उसका सार यह है कि अहेतुवादों- एकांतवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद तथा अज्ञानवाद आदि विपरीत सिद्धांतों से प्रेरित होकर व्यक्ति उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण कर सकता है। अर्थात् वह आत्म-कल्याण-पथ प्राप्त नहीं कर सकता, जिनशासन ही सच्चा प्रेरणा-स्रोत है, जिसको अनेक पराक्रमी राजाओं ने स्वीकार किया और अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया। भगवान् ने आगे बताया- जिनशासन अत्यंत निदानक्षम- युक्तिसंगत है, सत्य है, इसे अंगीकार कर अनेक जीवों ने संसार-समुद्र को पार किया, अनेक जीव वर्तमान में पार कर रहे हैं और भविष्य में पार करेंगे। । ऐसी स्थिति में विवेकशील साधक अहेतुवादों से अपने आपको कैसे परिवासित करे, उनसे वह कैसे प्रेरणा ले- अर्थात् उसे उस प्रकार के एकांतवादी सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। जो पुरुष संगों- आसक्तियों से छुट जाते हैं, कर्मरूपी रज से रहित हो जाते हैं, वे सिद्ध हो जाते हैं। विशेष भगवान् ने मुक्ति प्राप्त करने का आधार जिनशासन को बतलाया है क्योंकि उसमें जिस मार्ग का प्रतिपादन हुआ है, वह सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट है। वही सत्य है, स्वीकार करने योग्य है, संसार में जो १. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-१८, गाथा-५२-४, पृष्ठ : ३०२, ३०३. 221 NASALA RETRIOTECHAINSTALLY TEREALHERE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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