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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार तरह-तरह के मतवाद प्रचलित हैं, वे एकांत दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं। इसलिये वे स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। जब तक कोई भी उनमें ग्रस्त रहेगा, मुक्ति नहीं पा सकेगा। वीतराग-वाणी में जो साधना का पथ निर्दिष्ट हुआ है, वही सम्यक्-पथ है। जिन्होंने उस पथ का अनुसरण किया, वे मुक्त हुए। [ में चरण करना जब मनुष्य संसार । वे अनेक प्रकार र उसे अब्रह्मचर्य सीके लिये लोग न्य आकांक्षाओं बाह्य आकर्षणों इस संबंध में द, क्रियावाद, न्मत्त की तरह जिनशासन ही वन का लक्ष्य सिद्ध-नमन उत्तराध्ययन-सूत्र का बीसवाँ अध्ययन सिद्धों और संयतों के नमन से प्रारंभ होता है। आर्य सुधर्मा जंबू को संबोधित कर कहते हैं कि सिद्धों और संयमी साधकों को भाव से, भक्तिपूर्वक नमस्कार कर मैं जीवन के परम लक्ष्य- मोक्ष तथा धर्म, मोक्ष-प्राप्ति के साधनों का ज्ञान कराने वाली तथ्यपूर्ण शिक्षा देता हूँ, सुनो। अनुचिन्तन इस गाथा में पंचपरमेष्ठि-पद का दूसरा और पाँचवां पद दिया गया है। पहला, तीसरा और चौथा पद नहीं लिया गया है। इसका एक विशेष अभिप्राय है- जहाँ प्रथम पद में अरिहंतों को नमन किया जाता है, वहाँ उनके उपकार का भाव मुख्य होता है। यहाँ दूसरे पद को जो पहले लिया गया, उसका आशय यह है कि यह परम पद है, सर्वोच्च स्थान है, जिसे चारों पदों में विद्यमान महापुरुषों को प्राप्त करना होता है। इसके बाद संयमी साधु का पद लेने का भाव यह है कि आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों में मूलगुण तो साधुत्व ही है। उसके होने पर आचार्य और उपाध्याय प्राप्त होते हैं। वे संयमी साधुओं में से मनोनीत होते हैं। विशेष अधिकार, कार्य, योग्यता आदि की दृष्टि से जो भेद हैं, वे उत्तरगुण हैं। ___यहाँ मूलगुण और अंतिम लक्ष्य को लेकर वंदन किया गया है। इन दोनों पदों में पाँचों पद सहज ही समाविष्ट हो जाते हैं। इसे अंगीकार र भविष्य में नसे वह कैसे । जो पुरुष न मार्ग का सार में जो क्षेमंकर एवं शिवमय स्थान - उत्तराध्ययन-सूत्र के तेबीसवें अध्ययन में भगवान् महावीर के मुख्य गणधर गौतम और भगवान् | पार्श्व की परंपरा के केशीश्रमण के बीच जो चर्चा हुई, उसका वर्णन है। चर्चा के मुख्य कारणों में एक भगवान् पार्श्व का चातुर्याम-धर्म और भगवान् महावीर का पंच १. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-२०, गाथा-१, पृष्ठ : ३३३. 222
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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