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________________ o आगमों में सिद्धपद का विस्तार र चुके हैं। : रहती है। है, यदि वे उज्ज्वलतम त हो जाते । मूलतत्त्व हैं क्योंकि द्ध पद में यह होती है- 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि- मैं समस्त सावद्य- पाप सहित योगों का मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान-- त्याग करता हूँ। | उस दिन से वह किसी भी अशुभ क्रिया को न करने के लिए संकल्पबद्ध होता है। साथ ही साथ न वह किसी और द्वारा करवाता है। यदि कोई वैसा करता है तो वह उसका समर्थन या अनुमोदन नहीं करता, यह छठा गुणस्थान है। उसका नाम- प्रमत्त-संयत या प्रमादी साधू गुणस्थान है। बड़ा ही परिहेयता सफलता मन, वचन, शरीर तथा कृत, कारित, अनुमोदित- यों संपूर्णत: हिंसा आदि पापपूर्ण कार्यो का त्याग करने पर भी उसे प्रमत्त क्यों कहा जाता है ? उसका गुणस्थान, प्रमादी साधु गुणस्थान कैसे होता है? यह एक प्रश्न हैं। वह तो हिंसा आदि पाप कार्यों को न करने में सदा सावधान रहता है। जरा भी प्रमाद या लापरवाही नहीं करता फिर प्रमत्त कैसे ? प्रमाद शब्द का सूक्ष्म अर्थ- आत्मभाव के प्रति अनुत्साह है। बाह्य रूप में हिंसा आदि का वर्जन तो होता है किन्तु अंतरात्मा में अध्यात्म-उत्कर्षक के प्रति जो उत्साह होना चाहिए, सतत् आत्मपरक भाव उदित और वर्धित रहने चाहिए, वैसा नहीं होता। इसलिए वह अप्रमत्त या अप्रमादी नहीं कहा जाता। भगवान् महावीर गौतम को इस प्रमाद को छोड़ने की प्रेरणा देते हैं। बाह्य-दष्टि से तो गौतम और सभी संयमी अप्रमादी होते ही हैं परंतु आत्मा के भीतर जो प्रमाद-शून्यता होनी चाहिए, जो साधक के लिए आवश्यक है, गौतम को निमित्त बनाकर भगवान सभी संयमी जनों को वैसा करने का उपदेश देते तेद्धों की सर्वश्रेष्ठ थितउपदेश एक बात और ज्ञातव्य है, जब एक विरक्त पुरुष प्रव्रज्या स्वीकार करने को उद्यत होता है, उस समय उसके भावों में अत्यन्त तीव्रता और उज्ज्वलता आती है, जो अप्रमत्तता का संस्पर्श करती है परंतु वह टिकती नहीं। ब्रह्मचर्य और सिद्धत्व 1 अर्थ त्रों में उत्तराध्ययन-सूत्र में भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। ब्रह्मचर्य रूप धर्म, ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। वीतराग प्रभु द्वारा यह उपदिष्ट है। इसकी आराधना कर अनेक प्राणी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेंगे।' तिज्ञा 1. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-१६, गाथा-१७, पृष्ठ : २६६. 220
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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