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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन 1 इस संदर्भ में समाधान यह है कि अंतिम साध्य सभी का एक है। सिद्ध उसे प्राप्त कर चुके हैं। अरिहंत शीघ्र ही प्राप्त करनेवाले होते हैं क्योंकि केवल अंतिम भूमिका उनके लिए अवशिष्ट रहती है। आचार्य, उपाध्याय तथा साधु भी अंतिम भूमिका प्राप्त करने की दिशा में प्रयत्नशील होते है, यदि वे अखंडित रूप में अपने साधना पथ पर बढ़ते जाते हैं तो अपने-अपने उज्ज्वल, उज्ज्वलतर, उज्ज्वलतम | परिणामों के अनुसार यथासमय अपना साध्य साध लेते हैं । इन सब विशेषताओं से वे हैं, जो सिद्धों में प्राप्त होती है। दूसरी बात यह है कि संयम या शुद्ध चारित्र के रूप में जो मूलतत्त्व युक्त हो जाते है, वह सभी में एक समान है । इस दृष्टि से विद्वानों ने साधु पद में पाँचों पदों को स्वीकार किया हैं क्योंकि साधु ही अपने गुणों के अनुसार उन्नति करता हुआ आचार्य, उपाध्याय, अरिहंत और सिद्ध पद में अधिष्ठित होता है। इसलिए ये सभी मानवों, देवों द्वारा वंदनीय और पूजनीय है। उत्तराध्ययन सूत्र में सिद्ध-श्रेणी- क्षपक-श्रेणी उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर ने गौतम को प्रमाद न करने की प्रेरणा देते हुए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण उपदेश दिया, जिसमें देह और भोगों की नश्वरता, अप्रमाद में बाधक तत्त्वों की परिहेयता | इत्यादि अनेक तथ्यों को उन्होंने उजागर किया, जिन्हें स्वायत्त कर एक साधक अपने जीवन की सफलता के अंतिम लक्ष्य तक पहुँच सकता हैं। इस उपदेश के अन्तर्गत उन्होंने कहा- हे गौतम! अकलेवर - अशरीर या शरीर रहित, सिद्धों की श्रेणी पर, क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर तुम भविष्य में क्षेम कल्याण, शिव और अनुत्तर- सर्वश्रेष्ठ सिद्धलोक मोक्ष को प्राप्त करो। अतः क्षणभर भी प्रमाद मत करो। उत्तराध्ययन के चौथे अध्ययन के अंत में एक गाथा आई है, जिसमें बतलाया गया है कि सुकवितसम्यक, सुंदर पदों से, शब्दों से, वाणी से तथा अर्थ से सुशोभित सर्वज्ञ भगवान् महावीर का उपदेश | सुनकर गौतम राग-द्वेष को विच्छिन्न कर सिद्धगति को प्राप्त हुए । प्रमाद और अप्रमाद की व्याख्या प्रमाद और अप्रमाद जैन साधना क्षेत्र के दो महत्त्वपूर्ण शब्द है। साधारणतया प्रमाद का अर्थ लापरवाही या आलस्य होता है । अप्रमाद का अर्थ सावधानी और जागरूकता होता है। जैन शास्त्रों में इसका एक विशेष आशय है। एक व्यक्ति संसार का परित्याग कर संयमी जीवन अंगीकार करता है, उस दिन उसकी पहली प्रतिज्ञा १. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन - १०, गाथा- ३५, ३७ पृष्ठ : १७२. 219
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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