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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार भगवान्- गौतम ! सिद्ध जीव न तो मिथ्या-दृष्टि होते है ? न सम्यक्-मिथ्या-दृष्टि होते हैं किन्तु वे सम्यक्-दृष्टि ही होते हैं। । प्रज्ञप्त मुक्त। की दृष्टि सिद्धत्व-प्राप्ति की साधना-'सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्रणि-मोक्षमार्ग:'- से प्रारंभ होती है। सम्यक-दष्टि इसका मूल है। क्योंकि यह सत्यनिष्ठ आस्था के साथ जुड़ी हुई है, जिसका जीवन में अपरिहार्य स्थान है। वह सदैव विद्यमान रहती हैं। अत: सिद्धों में मिथ्या-दृष्टि और सम्यक्-मिथ्यादष्टि का होना सर्वथा असंभव है, ये दोनों तो विपरीत स्थितियाँ है। सिद्धों में सम्यक् दृष्टि ही होती है। यहाँ एक विषय विचारणीय है, नैरयिक, भवनवासी देव, तिर्यंच-पंचेंद्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव, इनमें तीनों ही दष्टियाँ प्राप्त होती हैं। अर्थात् वे मिथ्या-दृष्टि, सम्यक्मिथ्या-दष्टि और सम्यक्-दृष्टि हो सकते हैं। विकलेंद्रिय प्राणी सम्यक्-मिथ्या-दृष्टि नहीं होते । पृथ्वीकायादि एकेंद्रिय जीव मिथ्या-दृष्टि ही होते पेणी - अभव्य व्य की प्रमाण 'तीनों एक प्रश्न और उपस्थित होता है। ये तीनों दृष्टियाँ एक साथ कैसे होगी? क्योंकि ये तो एक दूसरे की विरोधी हैं। जहाँ मिथ्यादष्टि होगी, वहाँ सम्यक-दष्टि नहीं होगी। उसी प्रकार जहाँ सम्यक्-दृष्टि होगी, वहाँ मिथ्या-दृष्टि नहीं होगी। अभिप्राय यह है कि एक जीव में, एक समय में एक ही दृष्टि होती है। परिणाम बदलते रहते हैं। दूसरे समय में दष्टि भी परिवर्तित हो सकती है। परिवर्तित होने पर पहले की दृष्टि लुप्त होगी। दूसरी उत्पन्न होगी। यह क्रम चलता रहता है। में जब दृष्टि सम्यक्त्व में स्थिर हो जाती है, तब विकास-क्रम में साधक आगे बढ़ता है किन्तु आगे बढ़ने पर भी कभी-कभी ऐसा अवसर आता है, जब वह विचलित होने लगता है पर आत्मबल द्वारा दुर्बलता को जीत लेता है तो विपर्यास नहीं होता। द्वत्व नाता तक राने सिद्धों का अनाहारकत्व गौतम ने भगवान से प्रश्न किया कि सिद्ध जीव आहारक होता है अथवा अनाहारक होता है? भगवान् ने उत्तर दिया- सिद्धजीव अनाहारक होता है, आहारक नहीं होता। विग्रह-गति, केवलि-समुद्घात और शैलेशी-अवस्था ये सब आहारकत्व से संबंधित है। सिद्ध जीव १. प्रज्ञापना-सूत्र, पद-१९, सूत्र-१४०५. २. तत्त्वार्थ-सूत्र, अध्ययन-१, सूत्र-१. 216
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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