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णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन
में यह नहीं होते क्योंकि वे शरीर रहित होते हैं, उनके सब कर्म नष्ट होते हैं। इसलिए केवल समुद्धात उनमें घटित नहीं होता। शैलेशी अवस्था भी वे प्राप्त नहीं करते क्योंकि तेरहवें गुणस्थान में वे उसे प्राप्त कर चुके हैं। सिद्धावस्था में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । इसीलिए वे अनाहारक कहे गए। हैं ।
गौतम ने पूछा- भगवन् ! भवसिद्धिक जीव क्या आहारक होता या अनाहारक होता है ? भगवान् - गौतम् ! वह कदाचित् अपेक्षाविशेष से आहारक होता है तथा कदाचित् अनाहारक भी होता है ।
भव्यजीव जो सिद्ध होते हैं, उनकी दो स्थितियों को लेकर यहाँ विचार किया गया है। सिद्ध हो जाने के बाद विग्रह गति आदि की अपेक्षा से वे अनाहारक होते हैं तथा शेष समय में वे आहारक होते हैं क्योंकि उनमें वे बातें पायी जाती हैं- जिनका आहारकता से संबंध है ।
गीतम ने कहा- भगवन् ! नोभवसिद्धिक, नो अभव-सिद्धिक जीव आहारक है या अनाहारक है ?
भगवान् ने कहा- गौतम! वे अनाहारक होते हैं, आहारक नहीं होते।'
विशेष
जो जीव सिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं, वे भवसिद्धिक हैं। उन्हें भव्य नहीं कहा जा सकता। भव्य उन्हें कहा जाता है, जो मोक्षं प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं । सिद्धि प्राप्त होने पर योग्यता अप्रासंगिक हो जाती है। मोक्ष या सिद्धत्व प्राप्त कर लेने पर वे मोक्षगमन के लिए अभव्य अयोग्य | भी नहीं कहे जाते । यदि अभव्य कहे जाते तो उन्हें मोक्ष प्राप्त ही नहीं होता। उनमें सिद्धत्व है इसलिये आहारकता नहीं होती, अनाहारकता होती है ।
सिद्धत्व, संज्ञित्व, असंज्ञित्व
गीतम ने कहा भगवन् ! क्या सिद्ध जीव संज्ञी होते है ?
भगवान् गौतम ! सिद्ध जीव न तो संज्ञी, न असंज्ञी होते हैं । इसलिये वे नो-संज्ञी, नो-असंज्ञी | कहलाते हैं । *
१. प्रज्ञापना- सूत्र, पद- २८, सूत्र - १८६७, पृष्ठ : १२६. ३. प्रज्ञापना- सूत्र, पद- २८, सूत्र - १८७५, पृष्ठ : १२९.
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२. प्रज्ञापना- सूत्र, पद- २८, सूत्र - १८७१, पृष्ठ : १२८.
४. प्रज्ञापना- सूत्र, पद- ३१, सूत्र - १९७३, पृष्ठ : १७५.
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