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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
लिंग
भेदों
अनादि सपर्यवसित आदि रहित, अंत-सहित असिद्धों में भी अंतर नहीं होता।
गौतम- सिद्ध और असिद्ध में कौन किससे कम, अधिक, समान और विशेष अधिक है? भगवान- सबसे कम सिद्ध है तथा असिद्ध उनसे अनन्तगणा अधिक हैं।
जैन
समीक्षा
यहाँ सिद्धों और असिद्धों की चर्चा है । सिद्धों में स्वरूप की दृष्टि से कोई भेद नहीं होता। असिद्ध वे हैं, जिन्होंने सिद्धत्व प्राप्त नहीं किया। असिद्धों में कई ऐसे होते हैं, जो कभी सिद्ध नहीं होते, अभव्य इस कोटी में आते हैं। कुछ ऐसे होते हैं, जो साधना द्वारा सिद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं। जब तक वे सिद्धत्व प्राप्त नहीं करते तब तक उनकी असिद्ध संज्ञा होती है, उनमें अंतर नहीं होता।
प्रज्ञापना-सूत्र में चरम-अचरम जीव : अल्प-बहुत्व
प्रज्ञापना-सूत्र में जीवों के अल्प-बहुत्व का एक प्रसंग आया है। वहाँ गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं
भगवन ! चरम या अचरम जीवों में कितने जीव ऐसे हैं, जो सबसे कम हैं, सबसे अधिक है, समान हैं या विशेष अधिक है?
भगवान्- गौतम ! अचरम जीव हैं, वे सबसे कम हैं। चरम उनसे अंनतंगुण अधिक हैं।
पर्य्यवगाहन
अल्प-बहुत्व का प्रसंग पहले भी आया है। यहाँ पुन: उसकी चर्चा की गई है। जैन दर्शन के अनुसार संसार के समस्त जीव दो भागों में बांटे जाते हैं- चरम और अचरम । चरम का अर्थ अंतिम हैं- जो जीव अंतिम भव में होते हैं, अर्थात् उस भव के बाद मुक्त हो जाते हैं, दूसरा भव नहीं करते, वे चरम कहलाते हैं। यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि जिन जीवों में निश्चित रूप से चरम भव्यत्व की योग्यता होती है, जो निश्चित रूप से मुक्ति प्राप्त करते हैं, अपने वर्तमान भव में नहीं किन्तु आगे किसी भव में सिद्ध गति में जाते हैं, वे भी चरम कहलाते हैं किन्तु जो जीव अभव्य हैं, मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता
१. जीवाजीवाभिगम-सूत्र (द्वितीय खण्ड), प्रतिपत्ति-१, सूत्र-२३१, पृष्ठ : १६१, १६२. २. जीवाजीवाभिगम-सूत्र, (द्वितीय खण्ड), सूत्र-२३१, पृष्ठ : १६२. ३. प्रज्ञापना-सूत्र, पद-३, सूत्र-२७४, पृष्ठ : २५७, २५८.
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