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________________ S णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन। जैन धर्म स्व-पर कल्याण की प्रेरणा देता है। सिद्धों के स्व-लिंग, पुरुष-लिंग, स्त्री-लिंग, अन्य-लिंग ग्रहस्थ-लिंग रूप में जो भेद.किये गये हैं, वे इसी तथ्य के परिचायक हैं, साधक के लिए इन बाहरी भेदों का कोई महत्त्व नहीं हैं। ये बाह्यपरिवेश- बाह्यरूप सिद्धि नहीं दिलाते है। सिद्धि या मुक्ति तो तभी प्राप्त होती है, जब हेय का परित्याग और उपादेय का ग्रहण हो। जैन दर्शन के अनुसार स्वभाव ही उपादेय है। विभाव या परभाव हेय तथा त्याज्य है। AYearee सिद्ध एवं असिद्ध गौतम- भगवन् ! संसारसमापन्न-जीवाभिगम क्या है ? उसमें कितनी प्रतिपत्तियाँ है ? भगवान्– गौतम ! संसारसमापन्न-जीवाभिगम में नौ प्रकार की प्रतिपत्तियाँ हैं। कइयों का ऐसा कथन है कि सब जीव दो प्रकार से लेकर दस प्रकार तक के हैं।' जो दो प्रकार के सब जीवों का प्रतिपादन करते हैं, वे कहते हैं कि सिद्ध और असिद्ध दो प्रकार के जीव हैं। गौतम- भगवन् ! सिद्ध के रूप में जीव कितने समय तक रहते हैं ? भगवान- गौतम ! सिद्ध सादि हैं। उनका आदि तो है किन्तु अंत नहीं है। अर्थात् जीव सिद्ध के रूप में सदैव रहते हैं, वे कभी सिद्धत्व से रहित नहीं होते। गौतम- भगवन् ! असिद्ध के रूप में जीव कितने समय तक रहते हैं ? भगवान्-- असिद्ध जीव दो प्रकार के हैं। एक वे हैं, जो अनादि अपर्यवसित कहलाते हैं। अर्थात् उनकी न आदि हैं, न अंत हैं। दूसरे वे हैं जो अनादि सपर्यवसित कहलाते हैं। उनकी आदि तो नहीं है, पर अंत है अर्थात् जब वे सिद्धत्व पा लेते हैं तो असिद्धत्व का अंत हो जाता है। सिद्धत्व पाने से पहले वे असिद्ध रूप में रहते हैं। गौतम- भगवन् ! सिद्धों में कितना अंतर है ? A hrs RESE 5 Sem भगवान- गौतम ! सादि- अपर्यवसित आदि सहित और अंत रहित सिद्धों में अंतर नहीं होता। गौतम- भगवन् ! असिद्ध का अंतर कितना होता है ? भगवान्-- गौतम ! अनादि अपर्यवसित आदि रहित, अंतरहित- असिद्धों अंतर नहीं होता और १. जीवाजीवाभिगम-सूत्र, (प्रथम खण्ड), प्रतिपत्ति-१, सूत्र ८. 211 STHAN PATRO
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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