SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार १३. गृहस्थ-लिंग-सिद्ध जो गृहस्थ के वेष में रहते हुए सिद्ध होते हैं, वे गृहस्थ-लिंग-सिद्ध हैं। जैसे- मरुदेवी माता। रित गर्षि १४. एक-सिद्ध जो एक समय में अकेले ही सिद्ध होते हैं, वे एक सिद्ध हैं। है १५. अनेक-सिद्ध जो एक समय में एक साथ अनेक सिद्ध होते हैं, वे अनेक सिद्ध हैं। सिद्धांतत: एक समय में अधिक से अधिक एक सौ आठ जीव सिद्धत्व प्राप्त कर सकते हैं। सिद्धों का जैन सिद्धांतानुसार जो ऊपर पन्द्रह भेदों के रूप में विश्लेषण किया गया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। उससे जैन दर्शन की व्यापकता और सार्वजनीनता का परिचय प्राप्त होता है। जैन दर्शन बाहरी भेद को महत्त्व नहीं देता, वह संप्रदाय, वेष को भी महत्त्व नहीं देता। वह पुरुष-स्त्री आदि भेद को भी महत्त्व नहीं देता। वह ज्ञान और साधना को महत्त्व देता है, जो सम्यक् हो । साधना आत्मा का विषय है, जो केवल बाहरी वेष, कर्म-कांड या क्रिया-कलाप पर टिका हुआ नहीं है। कोई कितनी ही बाह्य पूजा, अर्चना करे किन्तु यदि उसकी अंतरात्मा में पवित्रता, सात्त्विकता, | सत्यनिष्ठा नहीं है तो वह अपना कल्याण सिद्ध नहीं कर सकता। सद्-आस्थायुक्त विरति और तपश्चरण द्वारा आत्मा का श्रेयस् सिद्ध होता है। विरति का अभिप्राय दोषों से, पापों से, अनाचरणों से दूर हटना है। ऐसा होने से आत्मा मलिन नहीं होती। तपश्चर्या से आत्मा का परिमार्जन होता है। पूर्वसंचित मलिनता धुल जाती है। आत्मा निर्मल और शुद्ध बन जाती है। ऐसा जो करते हैं, वे चाहे जैन साधु हों या साधु-संतों के रूप में हों, कोई अंतर नहीं आता। यदि अन्य वेष में भी संयम की साधना करते हों तो उनको भी वही फल मिलता है, जो जैन मुनि को मिलता है। जैन मनीषियों का यह चिंतन बड़ा उदार, पवित्र, सार्वजनीन और व्यापक है। जैन धर्म एक संप्रदाय या मजहब नहीं है, एक विश्वजनीन साधना-पथ है। अंग्रेजी में धर्म का जो Religion अनुवाद किया जाता है, वह यथार्थ नहीं है, उसमें संप्रदाय का भाव है। उसका सही अनुवाद Rightousness हो सकता है, जिसका अर्थ सत्यपरक एवं तथ्यपरक जीवन-दर्शन है। स्वार्थी जनों ने धर्म के साथ बड़ा अन्याय किया है। उसे संप्रदायों की सीमाओं में बांध डाला। परिणाम यह हआ कि धर्म के नाम पर बड़े-बडे | संघर्ष और युद्ध हए, जिससे धर्म की गरिमा कलंकित हुई। 210
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy