SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ RSS SANSAR Ka a णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन - से रहित हैं, उनका भव कभी चरम नहीं होता। वे कभी देह ते नहीं। विभिन्न योनियों में भटकते रहते हैं, इसलिये वे अचरम कहलाते हैं। अचरम का एक अर्थ और भी है, जिनका अब भव-चरम, शेष नहीं है। अर्थात् अब जन्म-मरण में नहीं आने वाले हैं। वे सिद्ध भी अचरम में सिद्ध कहलाते हैं। दोनों कोटि के अचरमों में भेद यह है कि अभव्यों का भव कभी चरम या समाप्त नहीं होता और मक्तों का भव कोई बाकी नहीं रहता। दोनों के अर्थों में बहुत बड़ा अंतर है किन्त अपेक्षा भेद से ये अचरम शब्द दोनों के साथ लाग हुआ है क्योंकि जैन दर्शन अनेकांतवादी है।। SAINIOR अनेकांत दर्शन के अनुसार अपेक्षा भेद से जो विवेचना की जाती है, उसे स्यादवाद कहा जाता है। विस्तार भय से यहाँ उसकी विस्तृत व्याख्या अपेक्षित नहीं है। केवल इतना ही ज्ञातव्य है कि अभव्यों के साथ जो अचरमत्व का विधान किया गया है. वहाँ उनके शरीर के चरम- अंतिम न होने की अपेक्षा से है तथा सिद्धों के साथ जो अचरम का प्रयोग किया गया है. वहाँ चरमत्व बाकी न रहने की अपेक्षा से है। चरम-अचरम जीवों के अल्प-बहत्त्व के संबंध में भगवान ने बतलाया- अचरम जीव सबसे कम है। चरम जीव अर्थात् वे जीव जिन्होंने अपने भव का अंत कर दिया तथा वे जीव, जो भव्य हैं- सिद्धत्व प्राप्त करने की क्षमता युक्त हैं, दोनों अचरम जीवों की अपेक्षा अनंतगणा हैं। जैन गणना के अनुसार वे अजघन्य, उत्कृष्ट, अनंतानंत है। अनंतानंत का अभिप्राय यह है कि अनंत को अनंत से गुणित करने पर जो गुणनफल प्राप्त होता है, वे जीव तावत्प्रमाण हैं। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है, जो अनंत है, जिनका कोई अंत नहीं, उनमें अल्पत्व-बहुत्व का भेद कैसा? इस संबंध में पहले संक्षेप में संकेत किया ही गया है, यहाँ पुन: स्पष्ट किया जाता है यद्यपि अनंत का अंत नहीं होता किन्त उसकी कोटियाँ हो सकती हैं। वे भी अनंत हैं, जो अपने से बहुतर कोटि से कम हैं किन्तु संख्या की दृष्टि से उनका अंत नहीं है, वे भी अनंत है, जो अपने से और अधिक कोटि से कम है। इस प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट रूप में अनंत की अनेक कोटियाँ हो सकती है। यही बात भगवान ने यहाँ प्रतिपादित की है कि अचरम जीव यद्यपि कम से कम हैं किन्तु हैं अनंत पर न्यूनतम कोटि के हैं। चरम जीव भी अनंत हैं किन्तु यह अनंत की उत्कृष्ट कोटि है क्योंकि वे | अनंतानंत हैं। अनंतबार अनंत हैं। SWAND aameeTRANSKRIT १. प्रज्ञापना-सूत्र, स्थान-२, सूत्र-२११, गाथा-१५८, १५९, पृष्ठ : १८९. 213 HIS AAWAH ASTRA HARI ANTRA
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy