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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
नापन्नक
प्रकार -प्राप्त
सामान्य अर्थ हैं। जिसके द्वारा संसार रूप समुद्र को पार किया जाय, भव-भ्रमण तथा आवागमन को मिटाया जाय, आध्यात्मिक दृष्टि से वह तीर्थ है।
सर्वज्ञ तीर्थंकर देव द्वारा जो प्रवचन किया गया, धर्म-देशना दी गई, वह तीर्थ है क्योंकि उसका अवलंबन लेकर प्राणी संसार-सागर को तैर सकते हैं। आवागमन से छूट सकते हैं।
भगवान् द्वारा स्थापित चतुर्विध- साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप धर्म-संघ भी तीर्थ कहा गया है।
तीर्थंकर देव द्वारा प्रवचन रूप, चतुर्विध-संघ रूप तीर्थ की स्थापना किए जाने के पश्चात जो जीव सिद्धत्व प्राप्त करते है, वे तीर्थ-सिद्ध कहलाते हैं। जैसे, भगवान् महावीर ने वर्तमान युग में धर्मतीर्थ की स्थापना की। उसके बाद गणधर गौतम, आर्य सुधर्मा आर्य जंबू आदि ने सिद्धत्व प्राप्त किया। वे सब तीर्थ-सिद्ध के अंतर्गत आते हैं।
भ्रमण र मोक्ष
नहीं हैं,
'अंतर
२. अतीर्थ-सिद्ध
प्रवचन रूप, चतुर्विध-संघ रूप तीर्थ की स्थापना किए जाने से पहले या तीर्थ का विच्छेद हो जाने के पश्चात् जो जीव सिद्धत्व प्राप्त करते हैं वे अतीर्थ-सिद्ध कहलाते हैं, जैसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव द्वारा धर्म-तीर्थ की स्थापना किए जाने से पहले ही माता मरुदेवी ने सिद्धत्व प्राप्त किया, इसलिए वे अतीर्थ-सिद्धों में समाविष्ट हैं।
ऐसी मान्यता है कि सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के मध्यवर्ती समय में तीर्थ का विच्छेद हो गया था। उस समय जातिस्मरण आदि ज्ञान द्वारा मोक्ष-मार्ग स्वीकार कर जो जीव सिद्धत्व को प्राप्त हुए, वे भी अतीर्थ-सिद्धों में समाविष्ट हैं।
३. तीर्थंकर-सिद्ध _जो तीर्थ की स्थापना करते हैं, धर्म-देशना देते है, वे तीर्थंकर-सिद्ध कहे जाते हैं। जो तीर्थंकर के रूप में सिद्धत्व पाते हैं। वे भी तीर्थंकर-सिद्ध कहे जाते है। वर्तमान अवसर्पिणी में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक जिन्होंने तीर्थंकरों के रूप में सिद्धत्व प्राप्त किया, वे तीर्थंकर-सिद्ध कहे जाते है।
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४. अतीर्थंकर-सिद्ध
तीर्थंकरों के अतिरिक्त जो सामान्य केवली के रूप में सिद्धत्व प्राप्त करते हैं, वे अतीर्थंकर-सिद्ध कहलाते हैं।
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