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________________ commerconommereme आगमों में सिद्धपद का विस्तार जैसे एक असभ्य, अशिक्षित-अज्ञ एवं वनवासी पुरुष नगर के बहुत प्रकार के गुणों को जानता हुआ भी वन में उनके समान कोई उपमा नहीं पाता, उन गुणों का वर्णन नहीं कर सकता, उसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसके लिए ऐसी कोई उपमा नहीं है, जो समानता में आ सके। फिर भी साधारण लोगों को समझाने हेतु उपमा द्वारा उसे बतलाते हैं। एक मनुष्य जैसा चाहे, वैसा सभी विशेषताओं से युक्त भोजन करता है। उसकी भूख-प्यास मिट जाती है तथा उसे तृप्ति का अनुभव होता है। उसी प्रकार सिद्ध सर्वकाल तृप्त हैं। वे सब समय तृप्तियुक्त रहते हैं। अनुपमशांति-युक्त हैं । शाश्वत एवं अव्याबाध, परमसुख में स्थित हैं। उन्होंने अपने सारे साध्य सिद्ध कर लिए है। इसलिये वे सिद्ध कहे जाते हैं। केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व द्वारा उन्हें समस्त विश्व का बोध प्राप्त है। इसलिये वे बुद्ध हैं। वे संसार रूप सागर को पार कर चुके हैं. इसलिये पारंगत है। अथवा वे परंपरा से प्राप्त मोक्षमूलक उपायों का अवलंबन कर संसार-सागर के पार पहुंचे हैं। उनके जो कर्मों का कवच लगा था, उसे तोड़कर वे उन्मुक्त बने हैं। वे जरा-मत्यु से रहित हैं, अमर हैं। वे सब प्रकार की आसक्ति से, कामना से रहित हैं। इसलिये असंग- संग रहित कहे जाते हैं। - इस प्रसंग में सिद्धों के संबंध में, संक्षेप में उन विशेषताओं का वर्णन किया गया है, जिनसे उनकी लोकोत्तरता या अलौकिकता सिद्ध होती है। इस जगत् में कहीं भी ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिससे सिद्धों की तुलना की जा सके, इसलिये उनको उपमा रहित, तुलना रहित कहा गया है। राजप्रश्नीय-सूत्र में अर्हत्-सिद्ध-संस्तवन ___राजप्रश्नीय-सूत्र में अरिहंतों की स्तुति का एक प्रसंग आता है, जहाँ उनके अनेक गुणों का वर्णन किया गया है, उनके द्वारा तीर्थस्थापन, स्वयं-संबुद्धत्व, कर्म-शत्रु-विनाशकता आदि का उल्लेख है। अंत में उन द्वारा सिद्धत्व प्राप्त किये जाने का सूचन है।' _यहाँ अरिहंतों की विशेषताओं की चर्चा है, जिनके जीवन का अगला चरण सिद्धत्व होता है। जो पूर्वकाल में अरिहंत थे, वे सभी सिद्धत्व को प्राप्त हुए, इसलिये एक अपेक्षा से इस पाठ में पंचपरमेष्ठी-पद के प्रथम तथा द्वितीय, दोनों पदों का समावेश हो जाता है। अरिहंत सिद्धों के पूर्वरूप हैं, जो सयोगावस्था में होते हैं। सिद्धत्व इनका अयोगावस्थामूलक अंतिमरूप है। वह चरम उत्कर्ष-युक्त स्थिति है। १. औपपातिक-सूत्र, सूत्र-१८२-१८९, पृष्ठ : १८०, १८१. २. राजप्रश्नीय-सूत्र, सूत्र-१९९, पृष्ठ : ११८. 206
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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