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- आगमों में सिद्धपद का विस्तार
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प्रतिहत का तात्पर्य आगे जाने से रुकना है। प्रतिष्ठित का अर्थ अवस्थित होना है। बतलाया गया है कि सिद्ध अलोक में जाने से प्रतिहत हैं- रुक जाते हैं अर्थात् अलोक में नहीं जाते। वे लोक के अग्रभाग में या लोकांत में प्रतिष्ठित हैं। वे इस मर्त्यलोक में ही शरीर को छोड़कर सिद्ध-स्थान में जाकर सिद्ध होते हैं।
जब वे शरीर छोड़कर अंतिम समय में प्रदेश-घन, आकार, नासिका, कान, उदर आदि रिक्त अंगों के विलीन हो जाने पर जिस घनीभूत या सघन आकार में होते हैं वही आकार वहाँ सिद्धस्थान में विद्यमान रहता है।
सिद्धों के अंतिम भव में लंबा या ठिंगना, बड़ा या छोटा- जिस प्रकार का आकार होता है, उससे सिद्धों की अवगाहना, उससे एक तिहाई भाग कम होती है। एक तिहाई भाग अंगों की रिक्तता के विलीन हो जाने पर कम हो जाता है, और दो तिहाई भाग परिमित उनकी अवगाहना होती है।
सिद्धों की अधिक से अधिक अवगाहना तीन सौ तैंतीस धनुष तथा एक तिहाई धनुष होती है। यह अवगाहना उनकी होती है, जिनका शरीर पाँच सौ धनुष के विस्तार से युक्त होता है। सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ एवं तिहाई भाग कम एक हाथ होती है। जिनके शरीर की अवगाहना सात हाथ होती है, उन मनुष्य के अनुसार सिद्धों की मध्यम अवगाहना का प्रतिपादन किया गया है।
सिद्धों की कम से कम अवगाहना एक हाथ और आंठ अंगुल होती है। जो मनुष्य दो हाथ की अवगाहना युक्त होते हैं, उन कूर्मापुत्र आदि की अपेक्षा से यह अवगाहना बतलाई गई है।
आगे कहा गया है कि सिद्ध अपने समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा अनंत सिद्धों का पूर्णतया स्पर्श किये हुए हैं। इस प्रकार एक सिद्ध की अवगाहना में अनंतसिद्ध अवगाह-युक्त हो जाते हैं। उनसे भी असंख्यात गुणे सिद्ध ऐसे हैं, जो देशों और प्रदेशों से एक दूसरे से अवगाह युक्त है। ___एक-दूसरे में प्रदेशों की दृष्टि से अवगाढ़- अवगाह युक्त हो जाने का अभिप्राय यह है कि आत्मा के प्रदेशों में संकोच और विकास का, विस्तार का स्वभाव है। इस कारण आत्म-प्रदेश संकुचित होकर एक दूसरे में समा जाते हैं। अमूर्त होने के कारण ऐसा होने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं
होती।
सिद्धों में साकार-अनाकार उपयोग
सिद्ध अशरीर-शरीर से रहित जीवघन- सघन या घनीभूत- अवगाह रूप आत्म-प्रदेशों से युक्त
12. औपपातिक-सूत्र, सूत्र-१६८-१७७, पृष्ठ : १७७-१७९.
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