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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार फिर वे ऋजश्रेणी को स्वीकार करते हैं। अर्थात् आकाश के प्रदेशों की सीधी पंक्ति का अवलंबन कर समान गति द्वारा एक समय में ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग में--- ज्ञानोपयोग में सिद्ध होते हैं। तब आत्मा गा अर्थात् कार संवर संचय के गया है। और शरीर ‘ने उत्तर सिद्धों का स्वरूप भगवान सिद्धों के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं- वहाँ लोक के अग्रभाग में शाश्वतकाल तक वे अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। वे सादि होते हैं क्योंकि मोक्ष पाने की दृष्टि से यह आदि या प्रारंभ है। वे अंतरहित होते हैं, शरीर रहित होते हैं। वे केवल सघन अवगाढ़-आत्मप्रदेशयुक्त होते हैं। वे ज्ञानरूप और दर्शनरूप होते हैं। कृतकृत्य होते हैं, जो प्रयोजन उन्हें सिद्ध करने थे, वे उन्होंने सिद्ध कर लिये हैं। वे निश्चल या अचल होते हैं स्थिर या प्रकंप-रहित होते हैं। वे कर्मरूपी रज से वर्जित होते हैं, मलरहित, दोष-रहित होते हैं। अज्ञानरूपी अंधेरे से रहित होते हैं। कर्मों के क्षीण हो जाने से वे अत्यंत विशुद्ध होते हैं। गौतम ने कहा- भगवन् ! आपने जो प्रतिपादित किया कि सिद्ध आदि सहित, अंत रहित इत्यादि होते हैं, ऐसा किस आशय से आप प्ररूपित करते हैं? _भगवान्- गौतम ! जैसे अग्नि से बीज पूरी तरह जल जाते हैं तब उन दग्ध बीजों को बोने पर अंकुर नहीं निकलते, उसी प्रकार जिनके कर्म-रूपी बीज संपूर्णत: दग्ध हो गये हैं, उन सिद्धत्व प्राप्त जीवों का भी जन्म नहीं होता। इसलिए वे अंत रहित हो जाते हैं।' सिद्ध भगवान् का स्वरूप अनुभव करने और पाने का एक सबसे ऊँचा श्रेष्ठ साधन या आलम्बन है- ध्यान । ध्यानयोग की साधना करके ही हम उस परम चिन्मय-स्वरूप की उपलब्धि-अनुभूति कर सकते हैं। आहार स्तर से संख्यात सन जीव करने के फिर वे सिद्धों के संहनन : संस्थान [ करते रण के गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- भगवन् ! सिद्ध्यमान- सिद्ध होते हुए जीव किस संहनन | (शरीर के अस्थि-बंध) में सिद्ध होते हैं? भगवान्- गौतम! वे जब सिद्ध होते हैं, तब वजऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। गौतम- भगवन् ! सिध्यमान- सिद्ध होते हुए जीव किस संस्थान (शरीराकार) में सिद्ध होते है। शैलेशी अनंत साथ हैं। १. औपपातिक-सूत्र, सूत्र-१५१-१५३, पृष्ठ : १७१, १७२. ३. औपपातिक-सूत्र, सूत्र-१५४, १५५, पृष्ठ : १७३. २. औपपातिक-सूत्र, सूत्र-१२४, पृष्ठ : १७३. ४. नवपद पूजे : शिवपद पावे, पृष्ठ : ७६. 202
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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