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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार वों में ऐसा नंद लेने का ये दुहराया औपपातिक-सूत्र के अनुसार उनके संस्थान के विषय में यह ज्ञातव्य है कि वे (सिद्ध) छ: प्रकार के संस्थानों में से किसी एक प्रकार के संस्थान से सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। तीर्थंकरों की अपेक्षा सिद्धों का उच्चत्व जघन्य सात रत्निमुंड हस्त-प्रमाण और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष-प्रमाण होता है। - सिद्ध होने वाले जीवों का आयुष्य कुछ अधिक आठ वर्ष प्रमाण तथा उत्कृष्ट- पूर्व कोटि-प्रमाण होता है। सिद्धों की परिवसना इस प्रकार होती है- सर्वार्थसिद्ध महाविमान के ऊपर की स्तूपिका के अग्रभाग से द्वादश योजन ऊपर जाने के पश्चात् ईषत् प्रारभारा नामक पृथ्वी है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन है, उसका वर्ण अत्यंत श्वेत- सफेद है तथा अत्यंत रमणीय है। उसके ऊपर के योजन पर लोक का अंत भाग है। उस योजन के ऊपर वाले एक गव्यूति (चार कोस) के ऊपरितनऊपर के षोड्श-भाग में सिद्धों की परिवसना है, वे वहाँ परिवास या निवास करते हैं। होते हैं, वे कहने के युष्य और भवसिद्धिक जीवों का सिद्धत्व ध्यायों से, रखकर ही ____एक बार भगवान् महावीर कोशांबी नगरी पधारे। कोशांबी में सहस्रानीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की बहन, उदयन राजा की भुआ, मृगावती की ननद- जयंती नामक श्रमणोपासिका थी, जो भगवान् महावीर के वचन-श्रवण में अभिरूचिशील, साधुओं की पूर्व शय्यातरा- स्थान देनेवाली, सुकमार एवं सुस्वरूप थी। जीवाजीव का चिंतन करती थी। वह राजपरिवार के साथ भगवान महावीर की सेवा में उपस्थित हुई। । जयंती ने जिज्ञासापूर्वक भगवान् महावीर से अनेक विषयों में प्रश्न किए। उसी संदर्भ में उसने भवसिद्धिक विषय में परिचर्चा करते हुए पूछा- भगवन् ! जीवों का भव-सिद्धिकत्व स्वाभाविक है या पारिणामिक हैं ? _ भगवान ने कहा- जयंती ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं हैं। जाते थे। परिवर्तन , इस हेतु जहाँ-जहाँ ही उन्हें क आगम विशेष - यहाँ स्वाभाविक और पारिणामिक दो शब्द आये हैं। जो स्वभाव से होता है, उसे स्वाभाविक कहा जाता है। वैसा होने का कारण स्वभाव है, जो स्वभाव है वह होता ही हैं, क्योंकि स्वभाव की परिभाषा त्रिकालवर्तिता है। वह अतीत, वर्तमान और भविष्य तीन कालों में रहता है। जैसे अग्नि का स्वभाव ऊष्णता है, जो सदैव रहती है। जाने पर पा हैं। १. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१२, उद्देशक-२, सूत्र-१-५, १२, पृष्ठ : १२६, १२७. २. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१२, उद्देशक-२, सूत्र-१५, पृष्ठ : १३९. 190 451
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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