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णमो सिदाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन
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पुन:--पुन: कहा जाता है ताकि सुनने वाले भलिभाति समझ सकें।
साहित्य में, काव्य में बार-बार आना पुनरुक्ति दोष कहा जाता है किन्तु आगमों में, शास्त्रों में ऐसा होना दोष नहीं माना जाता क्योंकि वहाँ लक्ष्य जन-जन के कल्याण का है, काव्यात्मक आनंद लेने का नहीं। इसी कारण ऊपर के प्रसंग में जो तथ्य स्पष्ट हैं, उन्हें साधारण लोगों को बोध देने के लिये दुहराया गया है।
सिद्धों का संहनन
गौतम ने भगवान महावीर से बंदन-नमस्कार करके प्रश्न किया- भगवन् ! जीव सिद्ध होते हैं, वे किस संहनन से होते हैं ?
भगवान् ने बताया- गौतम ! वे जीव वज़ऋषभनाराच संहनन से सिद्ध होते हैं। इतना कहने के बाद आगम में यह संकेत किया गया है कि सिद्धों के संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य और परिवसन- निवास आदि विषयक वर्णन औपपातिक-सूत्र के अनुसार यहाँ योजनीय है।
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समीक्षण
प्रथम अध्याय में विवेचन हुआ ही है, आगम कंठस्थ-परंपरा से प्रचलित रहे हैं। उपाध्यायों से, गुरुवंद से श्रमण वाचना लेते और कंठाग्र रखते । प्राचीन काल से सुनकर और स्मृति में रखकर ही | आगम-ज्ञान को सुरक्षित रखने की पद्धति थी। यह पद्धति दीर्घकाल तक चलती रही।
आगमों को श्रुत कहे जाने का संभवत: यही कारण रहा हो कि वे सुनकर अधिगत किये जाते थे। आगमों के संबंध में यह पूरा ध्यान रखा जाता रहा कि उनके पाठ में कहीं भी कोई भेद या परिवर्तन न आए। यहाँ तक कि एक-एक अक्षर, एक-एक मात्रा तक अपने शुद्ध रूप में विद्यमान रहे, इस हेतु समय-समय पर आगम वाचनाएँ हुई।
आगम-पाठों को कंठस्थ रखने की सुविधा रहे, स्मति पर जोर न पड़े, इस हेतु आगमों में जहाँ-जहाँ एक समान वर्णन है, उन-उन वर्णनों के पाठों को सब स्थानों पर न देकर किसी एक आगम में ही उन्हें निहित किया गया। जहाँ-जहाँ दूसरे आगमों में ये वर्णन आते है, वहाँ यह सूचित है कि अमुक आगम में इन्हें देखें। । यही बात यहाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र में आई है। सिद्धों के संहनन के संबंध में प्रश्न किए जाने पर संहनन बतलाकर तत्संबंधी अन्य बातें औपपातिक-सूत्र में से गृहीत करने का संकेत किया गया है।
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-११, उद्देशक-२, सूत्र-२, पृष्ठ : ४८.
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