SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार प ईंधन से गति अपने नद्ध स्थान परिणाम, प्राय यह मानसिक, फेर गति । इसका किसी को प्रवर्जित किये जाने तथा प्रशिष्य द्वारा किसी को प्रवर्जित किये जाने के विषय में जिज्ञासाएं हैं। इसके बाद गौतम भगवान् से आगे प्रश्न करते है कि सोच्चा केवली क्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, | परिनिर्वृत्त होते हैं ? समस्त दु:खों का अंत करते हैं। भगवान- गौतम ! वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त होते हैं तथा सब दु:खों का अंत करते हैं। गौतम- भगवन् ! क्या ? सोच्चा केवली के शिष्य भी सिद्धत्व, प्राप्त करते हैं? बुद्धत्व, मुक्तत्व और परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं ? भगवान्- गौतम ! उनके शिष्य भी सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। समस्त दु:खों का नाश करते हैं। गौतम... भगवन् ! क्या उनके प्रशिष्य भी सिद्ध होते हैं? भगवान् ने कहा- गौतम ! उनके प्रशिष्य भी सिद्ध होते हैं। समस्त कर्म का नाश करते हैं।' यहाँ प्रयुक्त सोच्चा-केवली का शब्द एक विशेष आशय के साथ जुड़ा है। जो गुरु आदि अन्य महापुरुषों से धर्म का श्रवण कर संयममूलक साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं, वे सोच्चा केवली कहे जाते हैं। 'सोच्चा' प्राकृत भाषा का शब्द है। उसका संस्कृत रूप 'श्रुत्वा' होता है, जो पूर्वकालिक क्रिया है। | उसका अर्थ 'सुनकर' है। यही सोच्चा पद यहाँ केवली के साथ जुड़ा हुआ है। ___ जो गुरु आदि के उपदेश का श्रवण किए बिना केवली होते हैं, बोध प्राप्त करते हैं, वे स्वयंबुद्ध कहे जाते हैं। जो केवली होते हैं, वे तो सिद्ध होते ही है, तो शंका-समाधान का वातावरण प्रसंग क्यों बना? ཨུ བྷྱཱ रहता है, मा एरण्ड है। उसी प्रकार क पटरी -प्रयोग ति पर शिष्यों को, जिज्ञासुओं को स्पष्ट तथा बोध कराने हेतु यह प्रसंग प्रस्तुत आगम में आया है। स्वयंबुद्ध केवली तो सिद्ध होते ही हैं। यह सर्वथा स्पष्ट है। सोच्चा केवली के संबंध में कोई संशय उत्पन्न न हो जाए, मन में अज्ञानवश कोई भ्रांति न हो जाए इसलिये सोच्चा केवली के शिष्य, प्रशिष्य की जो चर्चा हुई है, वह इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने हेतु है। वैसे तो यह बिलकुल साफ है। जब सोच्चा केवली सिद्ध होते हैं तो उनके शिष्य भी जो केवली हो गये हैं, सिद्ध होंगे ही। इतना होने के बावजूद उनकी चर्चा करने का अभिप्राय विषय को अधिक स्पष्ट करता है। - जैन आगमों की यह शैली है कि एक ही बात को जन-साधारण तक पहुँचाने के लिए कई प्रकार केवली। शिष्य १. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-९, उद्देशक-३१, सूत्र ४२-१-३. 188
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy