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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
प्रकार का व्याघात न हो तो स्वभावतः ऊर्ध्व ऊपर की ओर होती है। इसी प्रकार कर्म रूप ईंधन छूट जाने से कर्म रहित जीव की गति ऊर्ध्व होती हैं।
गीतम भगवन् ! पूर्व-प्रयोग से कर्म शून्य जीव की गति कैसी होती है ?
भगवान् गौत्तम! जैसे धनुष से कोई वाण छूटे, बीच में कोई व्यघात न हो तो उसकी गति अप लक्ष्य की ओर होती है, उसी प्रकार पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति अपने लक्ष्य - सिद्ध स्था की ओर होती है । अत एव हे गौतम! ऐसा प्रज्ञप्त किया गया है कि निःसंगता- निरागता, गतिपरिणाम बंधन, छेद निरन्धनता तथा पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की ऊर्ध्वं गति होती है।
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विमर्श
यहाँ सिद्ध या मुक्त जीव की गति के संबंध में जो शंका समाधान हुआ है, उसका अभिप्राय यह है कि सिद्धत्व, चौदहवें गुणस्थान में होता है। जब जीव में अयोगावस्था आती है, उसके मानसिक वाचिक या कायिक सभी प्रकार के योग निरुद्ध हो जाते हैं, जब कोई योग रहता ही नहीं तो फिर गति कैसी हो सकती है? क्योंकि गति का संबंध योग-युक्त जीव से है, योग रहित जीव से नहीं। इस | भगवान् ने जो समाधान किया है, वह बड़ा वैज्ञानिक और युक्ति संगत है।
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उसका आशय यह है कि अयोगावस्था पाने से पूर्व योगावस्था में जो प्रयोग या अभ्यास रहता है, उस अभ्यास के कारण बिना प्रयत्न के ही स्वयं गति - निष्पन्न होती है । जैसे पका हुआ और सूखा एरण्ड का फल फूट जाता है तो उसका बीज बिना किसी के द्वारा उछाले जाने पर भी उछल पड़ता है। उसी प्रकार योगयुक्त अवस्था में जो गति का पूर्व प्रयोग रहा था, उस प्रयोग के कारण बिना किसी प्रकार के प्रयत्न से भी सिद्ध-जीव की ऊर्ध्वगति हो जाती है ।
जैसे इंजन द्वारा खींचा हुआ रेल का हिव्वा इंजन के अलग हो जाने पर भी कुछ देर तक पटरी पर चलता रहता है । उस समय उसे कोई नहीं चलाता, फिर भी वह चलता है। इसका कारण पूर्व-प्रयोग है अर्थात जो पहले की गति का संस्कार है, उससे वह चलता है। यही तथ्य सिद्ध जीव की गति पर लागू होता है।
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सोच्चा केवली और सिद्धत्व
गौतम ने सोच्या केवली के संबंध में भगवान् से अनेक प्रश्न किये हैं, जिनमें उन द्वारा केवलीप्ररूपित धर्म का उपदेश दिये जाने, किसी को प्रवर्जित या मुण्डित किये जाने, सोच्चा - केवली के शिष्य
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूप शतक-७, उद्देश १ सूत्र- १३, १४,
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