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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार क्या वे स पर पन: गौतम अपने प्रश्न को आगे बढ़ाते है कि जो जीव कर्म रहित हैं उनकी गति कैसी होती है ? इसका समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं-उनकी गति निसंगता, नीरागता आसक्ति-वर्जित. राग-रहित, गति-परिमाण से बंधन का विच्छेद हो जाने से, कर्मरूपी ईंधन से छूट जाने से तथा पूर्व-प्रयोग से होती हैं। गौतम फिर पूछते हैं--- निसंगता, निरागता, गति-परिमाण बंधन, छेद तथा निरिन्धता और पूर्वप्रयोग से कर्म-रहित जीव की गति कैसी होती है? तनहीं होने ने या होती तब र न माप्त इस पर भगवान् कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति छेद रहित निरुहत- अखण्डित तुम्बे क्रमश: परिकर्म-संस्कार करता-करता उस पर दर्भ-डाभ तथा कुश लपेटे, वैसा करके उस पर आठ बार मृत्तिका का लेप करे । फिर उसे सुखाने हेतु धूप में रखकर पुन: पुन: उसे सुखाए। जब वह भलीभाँति सूख जाए, तब उसको अपार, अतरणीय, पुरुष प्रमाण से अधिक पानी में डाल दे, गौतम ! क्या वह तुम्बा जो मृत्तिका के आठ लेपों से अधिक भारी है, पानी के ऊपर के तल को छोड़कर पानी के पैंदे में- तल में जाकर टिक जाता है? गौतम ने कहा- भगवन् ! वह तुम्बा नीचे जमीन के तल या पैदे पर जाकर टिकता है ? , भगवान् बोले- उस पर लगे हुए मत्तिका के आठों लेप जब पानी में गल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, उतर जाते हैं तो क्या वह तुम्बा नीचे के तल को छोड़कर जल के ऊपर के तल पर आ जाता है ? गौतम बोल- हाँ, भगवन् ! वैसा होने पर वह पानी के ऊपर के तल पर आ जाता है। इस पर भगवान् ने कहा- तुम्बे की तरह ही नि:संगता से कर्मों के मल के लेप के दूर हो जाने से तथा नीरागता से-- राग रहित हो जाने से तथा गति-परिणाम से अकर्म- कर्म-रहित जीव की भी गति- ऊर्ध्वगति हो जाती है। - गौतम इस पर पुन: प्रश्न करते हैं- भगवन् ! बंधन का छेद हो जाने से कर्म-रहित जीव की गति कैसी होती है ? भगवान् बतलाते हैं-- हे गौतम ! जैसे मटर, मूंग, उड़द, सेम की फली और एरण्ड फल को धूप में रखकर सूखाए तो सूख जाने के बाद वे सब स्वयं फट जाते हैं। उनमें से बीज उछलते हैं, उसी प्रकार जब कर्म-रूप बंधन का छेद हो जाता है, तब कर्म रहित जीव की गति होती है। गौतम- भगवन् ! निरिन्धनता- इंधन रहित होने से कर्म रहित जीव की गति । कैसे होती है ? भगवान गौतम ! जैसे इंधन से- जलती हुई लकड़ी से मुक्त धुएं की गति, यदि बीच में किसी सद्ध नाथ प्ति 186 SHREE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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