SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार पय में न वह ' में जरा भी बंध में चर्चा यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उनके मुक्त होने का आधार उनका आचार्य पद या उपाध्याय पद नहीं है। अपित सर्वविरतिमय जीवन है। वह अक्षुण्णरूप में चलता रहे, तप से अनुभावित होता रहे, तभी वे उसके बलबूते पर सिद्धि- मुक्ति पाते हैं। सिद्धों का वृद्धि-क्रम ओं को सूत्रों है, आचार्य के संवर्धन, आदरणीय रहते हैं। न रहने का उनका मूल हैं। उन्हीं र भगवान वैयक्तिक _ व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र में एक स्थान पर गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं- भगवन् ! सिद्ध | कितने काल तक वृद्धिंगत होते हैं, बढ़ते हैं। इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं- गौतम ! सिद्ध जघन्य-कम से कम एक समय और उत्कृष्टअधिक से अधिक आठ समय तक वृद्धिंगत होते हैं, बढ़ते हैं। - इस सूत्र से पहले वृद्धि, हानि और अवस्थिति का वर्णन आया है। यहाँ पुन: बढ़ने की बात कही गई है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कोई भी जीव अधिक संख्या में उत्पन्न होते हैं तथा कम संख्या में मरण प्राप्त करते हैं तब वे बढ़ते हैं ऐसा कहा जाता है। जब वे कम संख्या में उत्पन्न होते हैं और अधिक संख्या में मरते हैं, तब वे घटते हैं, ऐसा कहा जाता है। जब जन्म और मृत्यु की संख्या समान होती है, जितने जीव जन्म लेते हैं, उतने ही मरते हैं। अथवा कुछ कालपर्यंत न जीवों का जन्म होता है, न मरण ही होता हैं, तब वे अवस्थित हैं, ऐसा कहा जाता है। _ सिद्धों के संबंध में यह ज्ञातव्य है कि सिद्ध-पर्याय सादि और अनंत है। अर्थात् सिद्धों की आदि | तो है- कर्म क्षय कर नये रूप में सिद्ध होते हैं किन्तु उनका अंत नहीं है। जो सिद्ध पर्याय पा लेते हैं, वे उसी में विद्यमान रहते हैं। उनका वह पर्याय कभी नष्ट नहीं होता। उनकी संख्या कभी कम नहीं होती किन्तु जब कोई जीव नये रूप में सिद्धत्व प्राप्त करता है, तब वृद्धि होती है। जितने काल तक कोई भी जीव सिद्धत्व नहीं पाता, उतने काल तक सिद्ध अवस्थित हैं, ऐसा कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में जैसा ऊपर उल्लेख हुआ है, सिद्धों की अवस्थिति के संबंध में गौतम द्वारा जिज्ञासा किये जाने पर भगवान् ने अवस्थिति का जो कालमान जघन्यत: एक समय का और उत्कृष्टत: छः मास तक का बतलाया, उसका आशय यह है कि कम से कम एक समय तक और अधिक से धक छ: महिने तक कोई जीव सिद्ध नहीं होता। वह काल उनका अवस्थिति-काल कहा जाता है। ", उसका ने-अपने । होते हैं पश्चरण कर लेते पाध्याय १. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-५, उद्देशक-८, सूत्र-२०. 184 नई HERE wakaal
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy